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________________ जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत १४९ कर्म की विविध अवस्थायें जैन कर्म-सिद्धान्त में कर्म की विविध अवस्थाओं का अतिसूक्ष्म वर्णन किया गया है। सैद्धान्तिक भाषा में इन अवस्थाओं को 'करण' कहा जाता है। करण दस होते हैं- बन्ध, उदय, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उपशम, उदीरणा, निधत्त और निकाचित।– ये दस करण प्रत्येक कर्म-प्रकृति में होते हैं। १. बन्धकरण: - 'राजवार्तिक' के अनुसार- "आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशलक्षणो बन्धः'' अर्थात् जैसे लोहे और अग्नि का एक ही क्षेत्र है और नीर तथा क्षीर मिलकर एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होकर सूक्ष्म पुद्गल एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। अमूर्त जीव से मूर्त कर्मों का संबंध कैसे? कर्म पुद्गल रूप होने के कारण मूर्तिक हैं और जीव को जैनदर्शन में अमूर्तिक कहा गया है। मूर्त कर्मों का अमूर्त जीव पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, परन्तु अमूर्त जीव पर मूर्त कर्मों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। ज्ञान आत्मा का गुण होने के कारण अमूर्त है, परन्तु मदिरा सेवन कर लेने से आत्मा का ज्ञान गुण लुप्त हो जाता है। अमूर्त गुणों पर मूर्त मदिरा का प्रभाव जिस प्रकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीव से मूर्त कर्मों का संबंध भी संभव है। २. उदयकरणः - कर्मों के विपाक अर्थात् फलोन्मुख अवस्था को 'उदय' कहते हैं। पूर्व संचित कर्म जब अपना फल देता है, तो उस अवस्था को जैन कर्मसिद्धान्त की भाषा में 'उदय' कहा गया है। यह उदय 'सविपाक' और अविपाक के भेद से दो प्रकार का होता है। उदय क्रम से परिपाक काल को प्राप्त होने वाला 'सविपाक उदय' कहलाता है। विपाक काल से पहले ही तपादि विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा कर्मों को फलोन्मुख अवस्था में ले आना 'अविपाक उदय' कहलाता है। १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४३७। ३. जैनतत्त्वकलिका, पृष्ठ १५५ ५. वही, पृष्ठ ३९९ २. राजवर्तिक, पृष्ठ २६ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ. ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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