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________________ जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत १४७ कर्म-सिद्धान्त का उल्लेख अन्य दर्शनों में प्रासंगिकरूप से ही प्राप्त होता है। परन्तु जैनदर्शन की तात्त्विक और कार्मिक दोनों ही धारायें समानरूप से साथ-साथ चलती रही हैं। योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने 'दृष्ट और जन्म वेदनीय' के रूप में केवल दो अधिकारों की स्थापना की है। वेदान्तदर्शन में स्वामी शंकराचार्य ने 'आगामी, संचित और प्रारब्ध' त्रिविध कर्मों का उल्लेख किया है। यह उल्लेख भी अत्यंत संक्षिप्त तथा संकेत मात्र पाया जाता है, जिससे कर्म-सिद्धांत की गहनता का स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता। __ कर्म-सिद्धांत की गहनता का परिचय देने के लिये जैनदर्शन में दस अधिकारों की स्थापना की गई है। जिनमें आगामी, संचित और प्रारब्ध कर्म तो हैं ही, परन्तु वर्तमान कर्मों के आधार पर उन कर्मों की शक्ति के हीनाधिक होने का सूक्ष्म विवेचन भी अन्य अधिकारों में प्राप्त होता है। जैन वाङ्मय के इस विशाल साहित्य में कर्म-सिद्धांत का विवेचन करने वाला विभाग ‘करणानुयोग' कहलाता है। 'करण' शब्द के दो अर्थ जैनदर्शन में प्रसिद्ध हैं- एक जीव के परिणाम और दूसरा इन्द्रिय। कर्म-सिद्धांत के 'करण' शब्द 'परिणाम' अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जीव के राग-द्वेषादि परिणाम ही उसके 'कर्म' कहलाते हैं, जिनके फलस्वरूप उसे नरक, तिर्यक्, मनुष्य और देव- इन चतुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। यह भ्रमण ही संसार कहलाता है, इसलिये करणानुयोग में तीन बातों का उल्लेख किया गया है—जीव के परिणाम, विविध कर्म और उनके फलस्वरूप प्राप्त होने वाला चतुर्गतिरूप संसार। जीव के परिणामों का विवेचन करने वाला, विविध प्रकार के कर्मों तथा उनकी बन्ध उदयादि अवस्थाओं को दर्शाने वाला और संसार भ्रमण के स्वरूप का चित्रण करने वाले लोक-विभाग,—इन तीन अवान्तर विभागों द्वारा दर्पण के समान विषय का प्रतिपादन करने वाला अनुयोग ‘करणानुयोग' है। सभी दर्शनों में दुःख का मूलकारण अविद्या को ही बताया है। जैनदर्शन में अविद्या के स्थान पर 'मिथ्यात्व' कहा गया है, जिसका अर्थ है-वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानकर विपरीत को ही यथार्थ मानना। मिथ्यात्व को ही सुख-दुःख अथवा कर्मबन्ध के कारणों में सबसे प्रथम कारण कहा गया है। जैनदर्शन में कर्म की व्याख्या इस ढंग से की गई है कि ईश्वर, ब्रह्म, विधाता, दैव और पुराकृतकर्म- सब कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाचक हो गए हैं। १. महापुराण, ४।२७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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