SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणविद्या-३ निर्वाण है। राजा मिलिन्द पुन: कहते हैं, कि भन्ते! निरोध हो जाना ही निर्वाण कैसे है? तव भिक्षु नागसेन मिलिन्द के प्रश्न का समुचित उत्तर देते हुए कहते हैं कि संसार के सभी अज्ञानी जीव इन्द्रियों और विषयों के उपभोग में लगे रहते हैं, जिसके कारण नाना प्रकार के कष्ट भोगते रहते हैं। परन्तु ज्ञानी आर्यश्रावक इन्द्रिय और विषयों के उपभोग में कभी नहीं लगता है, इसके फलस्वरूप उसकी तृष्णा का निरोध हो जाता है। इस प्रकार तृष्णा के निरोध होने से उपादान का निरोध, उपादान से भव का निरोध, भव के निरोध से जाति (जन्म) का निरोध, और पुनर्जन्म के न होने से बूढ़ा होना, मरना, शोक करना, रोना, पीटना, एवं परेशानी इत्यादि सभी दुःख रुक जाते हैं। अत: महाराज! इस तरह निरोध हो जाना ही निर्वाण है। यह निर्वाण शान्त स्वभाव से एक प्रकार का होने पर भी कारण पर्याय से 'सोपधिशेष निर्वाण धातु' एवं 'निरुपधिसेस निर्वाणधातु' इस प्रकार द्विविध होता है। दृष्ट धर्म निर्वाण को ही सोपधिशेष निर्वाण, एवं साम्परायिक निर्वाण को निरुपधिशेष निर्वाण कहते हैं। संयुक्त निकाय में कहा गया है कि “रागक्खयो, दोसक्खयो, मोहक्खयो इदं वुच्चति निब्बानं' अर्थात् राग, द्वेष एवं मोह के क्षय को ही निर्वाण कहते हैं। 'कम्मकिलेसेहि उपादीयतीति उपादि' अर्थात् कर्म क्लेश द्वारा जिनका उपादान होता है, वह 'उपादि' (उपधि) हैं। 'सिस्सति अवसिस्सति इति सेसो' उपादि च सो सेसो चाति उपादिसेसो' अर्थात् अवशिष्ट विपाक विज्ञान एवं कर्मज रूप ही 'उपादिसेस' हैं। अथवा अर्हतों के पञ्चस्कन्ध ही उपादिसेस हैं। इसके अनन्तर जब अर्हत् के पञ्चस्कन्ध क्षीण होकर विनष्ट हो जाते हैं। अर्थात् जब उसका परिनिर्वाण हो जाता है, तब विपाक विज्ञान एवं कर्मजरूप भी अवशिष्ट नहीं होते हैं, उस समय "नत्थि उपादिसेसो यस्साति अनुपादिसेसो' अर्थात् जिस निवणिधातु के साथ विपाक विज्ञान एवं कर्मजरूप भी नहीं है, उसे अनुपादिसेसनिब्बानधातु कहते हैं। पुन: आकारभेद से निर्वाण त्रिविध होता है। यथा सुझतं अनिमित्तं अप्पणिहितञ्चेति। १. मिलिन्दपज्हो, पृ. ५५। ३. संयुक्तनिकाय, भाग ४, जम्बुखादक मुत्त। २. विसुद्धिमग्ग। ४. अभि.सं. पृ. ७२७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy