SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ श्रमणविद्या-३ 'जयं वरं पसवति, दुक्खं सेति पराजितो । उपसन्तो सुखं सेति हित्वा जयपराजयं ।। निर्वैरता से ही स्वस्थ एवं विप्रसन्न समाज की परिकल्पना की जा सकती है। वैरभाव के विद्यमान रहने से मानव मन उद्विग्न,उपद्रुत तथा क्रोधपर्याकुल बना रहता है। अत: निर्वैरता, मित्रता, अविहिंसता, सर्वभूतहितैषिता आदि दिव्यभावना मानवता के पोषक तत्त्व हैं। इन दिव्यगुणों से युक्त मनुष्य सबका कल्याण के लिए तत्पर रहता है। त्रिपिटक में क्रोध को अक्रोध से, असाधुता को साधुता से, दान से कृपणता को तथा सत्य से असत्य को जीतने की देशना दी गई है । अत: अक्रोध, साधुता, सरलता, त्याग एवं सत्यवादिता मानवता के प्रकर्ष गुण हैं। अहिंसा ही आर्य का लक्षण है। “अहिंसा सब्बपाणानं अरियो ति पवुच्चति'। आत्मोपमता ही उसका साधन है। किसी को भयभीत नहीं करना चाहिए, किसी भी प्राणी को दुःखी नहीं बनाना चाहिए, किसी को सताना नहीं चाहिए-यही अहिंसा है। काय, मन एवं वचन से किसी भी जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार दुःख मुझे प्रिय नहीं है उसी प्रकार किसी भी प्राणी को दु:ख प्रिय नहीं है, ऐसा सोचकर न किसी को मारना चाहिए न किसी को सताना चाहिए। जैसा कि कहा गया है 'सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ।। यो पाणमतिपातेति मुसावादं च भासति । लोके अदिन्नं आदियति परदारं च गच्छति ।। सुरामेरयपानं च यो नरो अनुयुञ्जति । इधेवमेसो लोकस्मिं मूलं खणति अत्तनो ।। १. धम्मपद-गा.सं. २०१। २. अक्कोधेन जिने कोधं, असाधु साधुना जिने ।। जिने कदरियं दानेन, सच्चेनालीकवादिनं ।। (ध.प. २२३) ३. ध.प., गा. २७०। ४. ध.प.,गाथा-सं. २४६,२४७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy