SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ अवचूरिजुदो दव्वसंगहो गणि के विषय में ज्ञात सूचनाओं को द्रव्यसंग्रहकार नेमिचन्द्र के साथ भी जोड़ दिया गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं। ५. इस सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि द्रव्यसंग्रह पर लिखी प्रभाचन्द्र की संस्कृत वृत्ति तथा प्रस्तुत संस्कृत अवचूरि में ब्रह्मदेव की वृत्ति की तरह का कोई भी उल्लेख नहीं है। ६. ब्रह्मदेव की टीका के आधार पर द्रव्यसंग्रहकार नेमिचन्द्र के विषय में विचार करने वाले विद्वानों ने त्रिलोकसार तथा लब्धिसार के ऊपर उद्धृत सन्दर्भो को सर्वथा छोड़ दिया है। ७. वसुनन्दि द्वारा उल्लिखित नेमिचन्द्र को नाम साम्य के कारण द्रव्यसंग्रह का कर्ता मान लेने का सुझाव प्रमाणों के अभाव में स्वीकार्य नहीं हो सकता। दोनों की गुरु परम्परा भिन्न है। वसुनन्दि द्वारा उल्लिखित नेमिचन्द्र के गुरु नयनन्दि हैं तथा त्रिलोकसार के उल्लेख के अनुसार द्रव्यसंग्रहकार नेमिचन्द्र अभयनन्दि के शिष्य हैं । इसी प्रकार अपभ्रंश सुदंसणचरिउ के रचयिता नयनन्दि माणिक्यनन्दि के शिष्य हैं तथा वसुनन्दि द्वारा उल्लिखित नयनन्दि श्रीनन्दि के शिष्य हैं। वसुनन्दि कृत प्राकृत उवासयाज्झयणं तथा नयनन्दि कृत अपभ्रंश सुदंसणचरिउ में प्रशस्तियाँ उपलब्ध हैं । इसलिए उनके विवरणों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति नहीं है। ८. ब्रह्मदेव की टीका में नेमिचन्द्र को जहाँ सिद्धान्तिदेव कहा है वहीं अनेक स्थलों पर उन्हें 'भगवन्' जैसे पदों से भी सम्बोधित किया है। पारस्परिक सिद्धान्तों के संरक्षण के लिए विशेषरूप से प्रयत्नशील आचार्यों के लिए प्रयुक्त 'सिद्धान्तिदेव' एक गरिमामय अभिधान है। ९. द्रव्यसंग्रह अवचूरि में नेमिचन्द्र को महामुनि सिद्धान्तिक कहा गया है। १०. उक्त तथ्यों के आलोक में यह कहना उपयुक्त होगा कि द्रव्यसंग्रह के कर्ता, समय, स्थान, गुरु-शिष्य परम्परा के विषय में ब्रह्मदेव के विवरण के समर्थक अन्य पुष्ट प्रमाण जब तक उपलब्ध नहीं हो जाते तब तक ऐसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक विषयों पर कल्पना और अनुमान के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करना उचित नहीं है। द्रव्यसंग्रह और त्रिलोकसार के रचयिता को एक मानने का स्पष्ट आधार उपलब्ध है हो। ११. ब्रह्मदेव की टीका के विषय में श्री एस० सी० घोषाल ने द्रव्यसंग्रह की अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना में विचार करने के बाद लिखा हैसंकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy