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________________ श्रमणविद्या विज्ञान का निरूपण किया गया। इसी प्रक्रिया में से सप्त तत्त्व और नव पदार्थ का विवेचन प्रतिफलित हुआ। सप्त तत्त्व, नव पदार्थ ___ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सप्त तत्त्व हैं। इनमें पुण्य और पाप को सम्मिलित करने पर नव पदार्थ हो जाते हैं। नव पदार्थों के प्रतिपादन की परम्परा प्राचीन है। बाद में पुण्य और पाप को आस्रव-बन्ध में समाहित कर लेने के कारण सप्त तत्त्वों का विवेचन प्रमुख हो गया। तत्त्वार्थसूत्रकार ने सप्त तत्वों का ही विवेचन किया है। प्राचीन परम्परा में नव पदार्थों के क्रम में भी भिन्नता दिखाई देती है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, यह क्रम प्राचीन सैद्धान्तिक परम्परा में प्रचलित था। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में नव पदार्थों का इसी क्रम से विवेचन मिलता है। द्रव्यसंग्रह में पुण्य-पाप सहित नव पदार्थों का कथन है। मोक्षमार्ग जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप त्रयात्मक मोक्षमार्ग माना गया है। "सम्मइंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं हवदि" कहकर द्रव्यसंग्रह में इसका प्रतिपादन किया गया है। इसे रत्नत्रय मार्ग भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के द्वारा जैन दार्शनिकों ने भक्ति, ज्ञान और तपश्चर्या को सम्मिलित रूप से मोक्ष का कारण माना। मात्र भक्ति अथवा मात्र ज्ञान को मुक्तिमार्ग मानने का निषेध इससे व्यक्त होता है । दर्शन और ज्ञान के विना मात्र तपश्चरण भी मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। __ छमस्थ व्यक्ति के ज्ञान दर्शन पूर्वक होता है। उसके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग क्रमशः होते हैं, युगपत् नहीं होते। केवलज्ञानी में दोनों युगपत् होते हैं। दर्शन और ज्ञान के क्रमशः और युगपत् होने का यह विचार सैद्धान्तिक परम्परा में प्राचीन समय से होता रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसका प्रतिपादन मिलता है। सिद्धसेन ने सन्मति तर्क में दर्शन और ज्ञान को क्रमशः तथा युगपत् मानने वाली दो परम्पराओं का उल्लेख किया है। द्रव्यसंग्रह में कुन्दकुन्द की तरह छद्मस्थ में क्रमशः और केवली में युगपत् का कथन किया गया है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर भी चारित्र के विना मोक्ष संभव नहीं है । व्यवहार में व्रत, समिति और गुप्ति रूप चारित्र आवश्यक है । बाह्य और आभ्यन्तर क्रिया का निरोध रूप ध्यान संसार के कारणों का नाश करता है। ध्यान में संकाय-पत्रिका-२ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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