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________________ श्रमण परम्परा में संवर तत्त्वार्थसूत्र के वृत्तिकार देवनन्दि पूज्यपाद ने लिखा है कि वह संवर द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। संसार की निमित्त भूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर तथा उस क्रिया का निरोध होने पर तत्पूर्वक होनेवाले कर्मपुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद द्रव्यसंवर है।'७ द्रव्यसंग्रहकारने दो गाथाओं द्वारा संवर के इन्हीं दो भेदों को विश्लेषित करते हुए लिखा है कि आत्मा के जो परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण हैं, उन्हें भावसंवर और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण हैं वह द्रव्यसंवर हैं। भावसंबर को स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है कि व्रत समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा अनेक प्रकार का चारित्र, ये सब भावसंवर के विशेष जानना चाहिए।१८ 'टीकाकार ने इन परिभाषाओं की दूसरे शब्दों में व्याख्या करते हुए लिखा है-आस्रवरहित सहजस्वभाव होने से समस्त कर्मों के रोकने में कारण, जो शुद्ध परमात्मतत्त्व है, उसका स्वभाव से उत्पन्न शुद्ध चेतन परिणाम भावसंवर है। और कारणभूत भावसंवर से उत्पन्न हुआ कार्यरूप नये-नये द्रव्यकर्मों के आगमन का अभाव, द्रव्यसंवर है। पंचत्थिकाय के वृत्तिकारों ने लिखा है कि राग-द्वेष तथा मोह परिणामों का निरोध भावसंवर है और उसी भावसंवर के निमित्त से योगद्वारोंसे शुभाशुभ कर्म-पुद्गलों का निरोध द्रव्यसंवर है ।२० शुभ और अशुभ कर्मों के निरोध करने में समर्थ शुद्धोपयोग भावसंवर तथा भावसंबर के आधार से नवीनतम कर्मों का निरोध द्रव्यसंवर है ।२१ . कुन्दकुन्दाचार्य ने समयपाहुडसुत्त में शुद्धात्मा की उपलब्धि ही संवर कैसे, इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि शुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्धात्माको जानता हुआ जीव अशुद्धात्मा १७. स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति । तत्र संसारनिमित्तक्रिया निवृत्ति. र्भावसंवरः । तन्निरोधे तत्पूर्वककर्मपुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः । -सर्वार्थ सिद्धिः, ९/१। १८. चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो ।। वदस मिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। -द्रव्यसंग्रह, गा० ३४-३५ । १९. द्रव्य संग्रह टीका, गा० ३४ । २०. पंचस्थिकाय, २/१४२ अमृतचंद्राचार्य वृत्तिः । २१. वही, जयसेनाचार्यवृत्तिः । संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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