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________________ श्रमणविद्या 130) संक्रमण-प्रस्थापक किन-किन कर्माशों को बाँधता है, किन कर्माशों का संक्रमण करता है और किन-किन कर्मांशों का असंक्रामक रहता है। 131) द्विसमयकृत अन्तरावस्था में वर्तमान संक्रमण-प्रस्थापक के मोहनीय तो वर्षशतसहस्र स्थिति संख्या रूप बंधता है और शेष कर्म असंख्यात शतसहस्र प्रमाण बंधते हैं। 132) भय, शोक, अरति, रति, हास्य, जुगुप्सा, नपुंसक वेद, स्त्री वेद, असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अयशःकीर्ति और शरीर नाम कर्म को नियम से नहीं बांधता है। 133) जिन सर्वावरणीय (अर्थात् सर्वघातिया) कर्मों की अपवर्तना होती है, उनका तथा निद्रा, प्रचला और आयुकर्म का भी अबंधक होता है। शेष कर्मों का बंध करता है। 134) निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नीचगोत्र, अयशःकोति, और छह नोकषाय, इतने कर्मों का तो संक्रमण-प्रस्थापक नियम से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप सर्व अंशों में अवेदक रहता है। 135) वह संक्रमण-प्रस्थापक वेदों का, वेदनीय कर्म को, सर्वावरणीय-सर्वधाती प्रकृतियों को तथा कषायों को वेदन करता हुआ भजनीय है । उनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियों का वेदन करता हुआ अभजनीय है। 136) मोहनीय कर्म की सर्वप्रकृतियों का आनुपूर्वी से संक्रमण होता है, किन्तु लोभ कषाय का संक्रमण नहीं होता, ऐसा नियम से जानना चाहिए । 137) (नव नोकषाय और चार संज्वलन रूप तेरह प्रकृतियों का संक्रमण करने वाला क्षपक) नपुंसक वेद को आदि करके क्रोध, मान, माया और लोभ, इन सब कर्मों को यथानुपूर्वी से संक्रान्त करता है। 138) स्त्री वेद तथा नपुंसक वेद का नियम से पुरुष वेद में संक्रमण करता है। पुरुष वेद और हास्यादि छह, इन सात नोकषायों का नियम से संज्वलन क्रोध में संक्रमण करता है। 139) क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में संक्रान्त करता है। मान संज्वलन को माया संज्वलन में संक्रान्त करता है। माया संज्वलन को लोभ संज्वलन में संक्रान्त करता है। इनका प्रतिलोम अर्थात् विपरीत क्रम से संक्रमण नहीं होता है। संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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