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________________ कसायपाहुडसुत्तं 78) विवक्षित सन्धि से अग्रिम सन्धि अनुभाग की अपेक्षा नियम से अनन्तभागरूप विशेष से अधिक होती है और प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनन्तभाग से हीन होती है। 79) दारु समान स्थान में जो उत्कृष्ट अनुभाग अंश है, वह सर्वावरणीय (सर्वघाती) है। उससे अधस्तन भाग देशावरण (देशघाती) है और उपरितन भाग सर्वावरण (सर्वघाती) है। 80) यही क्रम नियम से मान, माया, लोभ और क्रोध कषाय सम्बन्धी चारों स्थानों में निरवशेष रूप से जानना चाहिए। 81) इन उपर्युक्त स्थानों में से कौन स्थान किस गति में बद्ध, बध्यमान, उपशान्त या उदीर्ण रूप से पाया जाता है ? 82) पूर्वोक्त सोलह स्थान यथासम्भव संज्ञियों, असंज्ञियों में, पर्याप्त में, अपर्याप्त में, सम्यक्त्व में मिथ्यात्व में और मिश्र सम्यग्मिथ्यात्व में जानना चाहिए । 83) विरति में, अविरति में, विरताविरत में, अनाकार उपयोग में, साकार उपयोग में, योग में तथा लेश्या में पूर्वोक्त सोलह स्थान जानना चाहिए। 84) किस स्थान का वेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थान का बंधक होता है और किस स्थान का अवेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थान का अबंधक रहता है ? 85) असंशी नियम से लता समान और दारु समान अनुभाग स्थान को बांधता है । संज्ञी चारों स्थानों में भजनीय है। इसी प्रकार से सभी मार्गणाओं में बंध और अबंध का अनुगम करना चाहिए। 86) क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद, ये दश क्रोध के नाम हैं। 87) मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव तथा उसिक्त ये दश नाम मानकषाय के हैं। 88) माया, सातियोग, निकृति, वंचना, अनुजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, गूहन और छन्न ये ग्यारह नाम मायाकषाय के हैं। काम, राग, निदान, छंद, स्वत, प्रेय, द्वेष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, 90) मूर्छा, गृद्धि, साशता या शाश्वता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या तथा जिह्वा ये बोस लोभ के एकार्थक नाम कहे गये हैं। 89 - संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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