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________________ १०६ कसायपाहुडसुतं कृष्टियों में ग्यारह गाथाएँ हैं । कृष्टियों की क्षपणा में चार, क्षीणमोह में एक, संग्रहणी में एक, इस प्रकार चरित्रमोह के क्षपणा नामक अधिकार में अट्ठाइस गाथाएँ हैं। इसके बाद चार गाथाओं में सुत्तगाहा और उनकी भासगाहा का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् दो गाथाओं में पंद्रह अधिकारों के नाम निर्दिष्ट हैं। आगे १५ से २० तक छह गाथाओं में अद्धापरिमाण का कथन है। आगे प्रत्येक अधिकार की गाथाएँ दी गयी हैं। कसायपाहुड की वास्तविक विषयवस्तु का विवेचन गाथा २१ से होता है। इस गाथा में भी विषय का निर्देश प्रश्नात्मक पद्धति से किया गया है। कहा गया है कि-किस कषाय में किस नय की अपेक्षा प्रेय या द्वेष रूप व्यवहार होता है ? कौन नय किस द्रव्य में द्वेष रूप होता है तथा किस द्रव्य में प्रिय के समान आचरण करता है ? मूल ग्रन्थ में इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया गया। चूगि तथा टीका में इसका विवेचन किया गया है। इसके आगे की २२वीं गाथा में कहा गया है कि 'मोहनीय कर्म की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति, झीणाझीण तथा स्थित्यन्तिक की प्ररूपणा करना चाहिए।' इस प्रकार इस गाथा द्वारा ही इस गाथा में आगत अधिकारों का कथन कर दिया गया है । चूर्णिकार तथा टीकाकार ने प्रत्येक अधिकार का पृथक्-पृथक् विवेचन किया है। २३वीं गाथा बन्धक अधिकार से सम्बद्ध है। यह भी प्रश्नात्मक है। इसमें कहा गया है कि 'कितनी प्रकृतियों को बाँधता है ? कितना स्थिति-अनुभाग को बाँधता है ? कितने प्रदेशों को बाँधता है ? कितनी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का संक्रमण करता है ?' आगे की गाथाओं में बन्ध का कथन नहीं किया गया। संक्रम का कथन २४ से ५८ तक ३५ गाथाओं में किया गया है। ५९ से ६२ तक चार गाथाओं में वेदक अधिकार का कथन है। ये चारों गाथाएँ भी प्रश्नात्मक हैं। ६३ से ६९ तक सात गाथाओं में उपयोग अधिकार का कथन है । ये गाथाएँ भी प्रश्नात्मक हैं। गाथा ७० से ८५ तक चतुःस्थान अर्थाधिकार का कथन है । ये सभी गाथाएँ प्रश्नात्मक नहीं हैं, मात्र दो गाथाएँ प्रश्नात्मक हैं। इन गाथाओं में कषायों के चार प्रकारों का विवरण है। आगे पाँच गाथाओं द्वारा व्यञ्जन अधिकार का निरूपण है। ये गाथायें भी प्रश्नात्मक नहीं हैं । आगे के अधिकारों में दर्शनमोह और चरित्रमोह के उपशम तथा क्षपण का कथन है । मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का विशेष महत्त्व है। मोक्षमार्गी जीव को सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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