SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणविद्या कसायपाहुड के एक सौ अस्सी गाहासुत्त वागरण' और 'वाचना' सहित वीरसेनजिनसेन के समय तक परम्परया संरक्षित रहे तभी वे जयधवला जैसी साठ हजार श्लोक प्रमाण बृहत् टीका की रचना कर सके। यह रचना शक संवत् ७५९ (ई० सन् ८३७) में पूरी हुई । उस समय राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का राज्य था।' प्राचीन पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम और उसके सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्दावली के पारिभाषिक अर्थों को समझना भी आवश्यक है। प्रथम गाथा में कहा गया है कि 'पेजपाहुड' में 'कसायपाहुड' है । यतिवृषभ कहते हैं कि उस पाहुड के दो नाम है-'पेजदोसपाहुड' और 'कसायपाहुड' | पेजदोसपाहुड नाम अभिव्याहरण निष्पन्न है और कसायपाहुड नय निष्पन्न । "तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि । तं जहा-अभिवाहरणणिप्पण्णं पेज्जदोसपाहुडं । गयदो गिप्पणं कसायपाहुडं। दूसरी गाथा में ग्रन्थ की गाथाओं को 'सुत्तगाहा' कहा गया है। इस तरह 'पेज', 'कसाय', 'पाहुड' तथा 'सुत्त' शब्द की पारिभाषिक अर्थ-परम्परा ज्ञातव्य है। कसाय _ 'कसाय' व्यक्ति के मनोभावों का एक सम्पूर्ण विज्ञान है। इसके अन्तर्गत व्यक्तित्व का विश्लेषण उसके मनोगत भावों की जटिलताओं के सूक्ष्मतम परिदृश्य में किया जाता है। इस विश्लेषण का आधार गणितीय है। इसलिए पूरा कर्मसिद्धान्त 'कसाय' के गणितीय विश्लेषण के माध्यम से किया गया है। इस कारण वह सहज बोधगम्य नहीं है। जैसे 'गुर'-सिद्धाना समझ लेने पर गणित अत्यन्त सरल हो जाता है, उसी प्रकार 'कसाय' का 'गुर'-सिद्धान्त जान लेने पर पूरा कर्मसिद्धान्त समझना आसान हो जाता है। ___ 'कसाय' के मूल में चार भेद कहे गये हैं-१. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ । इनकी प्रवृत्ति राग-द्वेष के रूप में होती है। सम्भवतया 'पेज्ज' शब्द राग-द्वेष को समवेत रूप में अभिव्यक्त करने वाला प्राचीन पारिभाषिक शब्द है। पेज्ज का रूपान्तर 'प्रेय' होने पर उसका अर्थ 'राग' में सिमट गया। इसलिए राग के विपरीत द्वेष शब्द आया। किस कसाय की प्रवृत्ति कहाँ राग रूप होगी और कहाँ द्वेष रूप इसका विस्तार से विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार पेज्ज' शब्द में कसाय समाहित है। ९. कसा० पा०, भाग १, प्रस्तावना । १०. कसा० पा० सुत्त, चुण्णिसुत्त, २१, २२ । संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy