SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांगरमल जैन २१ परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य निर्जरा है । भाव निर्जरा कारण रूप है और द्रव्य निर्जरा कार्य रूप है । सकाम और अकाम निर्जरा : १. प्रथम - - कर्म जितनी काल मर्यादा पुनः निर्जरा के दो अन्य प्रकार भी माने गये हैं । ( अवधिकाल ) के साथ बन्धा है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकाल निर्जरा कहो जाती है । इसे सविक, अकाम और rateefae निर्जरा भी कहते हैं । यह सविपाक निर्जरा इसलिए कहो जाती है कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है । इसे अकाम निर्जरा इस आधार पर कहा गया है क्योंकि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प का तत्व नहीं होता है । उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अतः इसे अनौपक्रमिक भी कहा जाता है । दूसरे जब तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने के समय के पूर्व अर्थात् उनकी कालस्थिति परिपक्व होने के पहिले ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग अलग कर दिया जाता है तो ऐसी निर्जरा को सकाम निर्जरा कहा जाता है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है । इसे अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फोदय नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है । विपाकोदय और प्रदेशो में क्या अन्तर हैं, इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है । जब क्लोरे - फार्म सुँघाकर किसी व्यक्ति की चीर फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दुःखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है लेकिन विपाकोदय नहीं होता है । उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं लेकिन दुःखद वेदना की अनुभूति नहीं है । इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है । अतः यह अविपाक निर्जरा कही जाती है इसे सकाम निर्जरा भी कहा जाता है क्योंकि इसमें कर्म परमाणुओं को आत्मा से अलग करने का संकल्प होता है । यह औपक्रमिक निर्जरा भी कही जाती है क्योंकि इसमें उपक्रम या प्रयास होता है । प्रयास पूर्वक, तैयारी सहित, कम वर्गणा के पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता । है । यह कर्मों को निर्जरित (क्षय) करने का कृत्रिम प्रकार है । अनौपक्रमिक या सविपाक संचित कर्म के प्रतिफलों का जीवन को आई हुई परि निर्जरा अनिच्छा पूर्वक, अशान्त एवं सहन करना है जबकि अविपाक निर्जरा स्थितियों का मुकाबला करना है । जैन साधना में औपक्रमिक निर्जरा का स्थान : व्याकुल चित्तवृत्ति से, पूर्व इच्छापूर्वक समभावों से सविपाक या अनौपक्रमिक क्षेत्र में ही नहीं जैन साधना की दृष्टि से निर्जरा का पहला प्रकार जिसे निर्जरा कहते हैं अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, यह पहला प्रकार साधना के आता है क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत रूप से चला आ रहा है । हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं लेकिन जब तक नवीन कर्मो का सृजन समाप्त नहीं होता ऐसी निर्जरा से सापेक्षिक रूप में कोई लाभ नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता रहे लेकिन नवीन ऋण भी ऋण मुक्त नहीं होता है । लेता रहे तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy