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________________ सांगरमल जैन ३४ १९ अतः वे संवर को जैन परम्परा के अर्थ में नहीं लेते हैं । उसमें संवर का अर्थ मन, वाणी एवं शरीर के क्रिया - व्यापार या ऐन्द्रिक प्रवृत्तियों का संयम ही अभिप्रेत है । वैसे जैन पर म्परा में भी संवर को कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के निरोध के रूप में माना गया है क्योंकि संवर के पाँच अंगों में अयोग ( अक्रिया ) भी एक माना गया है । यदि हम इस परम्परागत अर्थ को मान्य करते हुए भी इससे थोड़ा ऊपर उठकर देखें तो संवर IT वास्तविक अर्थ संयम ही माना जा सकता है । जैन परम्परा में भी संवर के रूप में जिस जीवन प्रणाली का विवेचन किया गया है वह संयमात्मक जीवन की प्रतीक है । स्थानांग सूत्र में संवर के पाँच भेदों का विवेचन पाँचों इन्द्रियों के संयम के रूप में किया गया है । उत्तराध्ययन सूत्र में तो संवर के स्थान पर संयम को ही आस्रव-निरोध का कारण माना गया है" । वस्तुतः संवर का अर्थ है अनैतिक या पापकारी प्रवृत्तियों से अपने को बचना और संवर शब्द इस अर्थ में संयम का पर्याय ही सिद्ध होता है । बौद्ध परम्परा में संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में हो हुआ है । धम्मपद आदि में प्रयुक्त संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है । संवर शब्द का यह अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक विवेचन को सुलभ बना सकेंगे वहीं दूसरी ओर जैन परम्परी मूल आशय से भी दूर नहीं होवेंगे । लेकिन संवर का यह निषेधक अर्थ ही सब कुछ नहीं है, वरन् उसका एक विधायक पक्ष भी है । शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किए गए हैं क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है । वृत्ति - शून्यता के अभ्यासी के लिए प्रथम शुभ वृत्तियों को अंगीकार करना होता है । क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं रहता है । अशुभ को हटाने के लिए शुभ आवश्यक है । दूसरे शुभ का हटाना तो इतना सुसाध्य होता है कि उसका सहज निराकरण हो जाता है । अतः संवर का अर्थ शुभ वृचियों का अभ्यास भी है । यद्यपि वहाँ शुभ का वह अर्थ नहीं है जिसे हम पुण्यास्रव या पुण्यबन्ध के रूप में जानते हैं । जैन परम्परा में संवर का वर्गीकरण : (अ) जैन दर्शन में संवर के दो भेद है- १. द्रव्य संवर और २. भाव संवर । द्रव्य संग्रह में कहा गया है कि कर्मास्रव को रोकने में सक्षम आत्मा की चैतसिक स्थिति भावसेवर है, और द्रव्यासव को रोकने वाला उस चैतसिक स्थिति का जो परिणाम हैं, वह द्रव्यसंवर कहा जाता है । (अ) सामान्यरूपेण संवर के पांच अंग या द्वार बताये गये हैं १. सम्यक्त्व - यथार्थ दृष्टिकोण, २. विरति - मर्यादित या संयमित जीवन, ३. अप्रमत्तता आत्म चेतनता, ४. अकषाय-वृत्ति - क्रोधादि मनोवेगों का अभाव और ५. अयोग- अक्रिया + (स) स्थानांग सूत्र में संवर के आठ भेद निम्नानुसार बताए गए हैं- १. श्रोत्र इन्द्रिय का संयम, २. चक्षु इन्द्रिय का संयम, ३. घ्राण इन्द्रिय का संयम, ४ रस इन्द्रिय का संयम, ५. स्पर्श इन्द्रिय का संयम, ६. मन का संयम, ७ वचन का संगम और ८. शरीर का संयम । (द) प्रकारान्तर से जैनागम ग्रन्थों में सीवर के सत्तावन भेद भी माने गए हैं। जिसमें पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दस प्रकार का यति धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ), बावीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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