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________________ २ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया (इ) कर्म सिद्धान्त चेतन आत्म तत्त्व को प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना एवं अनुभूति के कारण की खोज बाह्य जगत में नहीं करता वरन् आन्तरिक जगत में करता है । वह स्वयं चेतन सत्ता में ही उनके कारण को खोजने की कोशिश करता है । जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द का अर्थ : सामान्यतया क्रिया को कर्म कहा जाता है, क्रियाएँ तीन प्रकार की मानी गई हैं । १-शारीरिक, २-मानसिक, और ३-वाचकः शास्त्रीय भाषा में इन्हें योग कहा गया है । लेकिन जैन परम्परा में कर्म का यह क्रिया परक अर्थ कर्म शब्द की एक आंशिक व्याख्या ही प्रस्तुत करता है । उसमें क्रिया के हेतु पर भी विचार किया गया है । आचार्य देवेन्द्र सूरि कर्म की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है'। पं. सुखलाल जी कहते हैं मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कर्म कहलाता है । इस प्रकार वे कर्म के हेतु और क्रिया दोनों को ह कर्म के अन्तर्गत ले जाते हैं । जैन परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं (१) रागद्वेष, कंघाय आदि मनोभाव और (२) कर्म पुद्गल । कर्म पुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है । कर्म पुद्गल से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं से है, जो प्राणी की किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं और समय विशेष के परिपक्व होने पर अपने फल (विपाक) के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं, इन्हें द्रव्य-कर्म कहते हैं । संक्षेप में जैन विचारणा में कर्म मे तात्पर्य आत्म-शक्ति को प्रभावित और कुण्ठित करने वाले तत्त्व से है । सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है जो आत्म तत्त्व या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है । जैन दर्शन उसे कर्म कहता है । वही सत्ता वेदान्त में माया या अविद्या, सांख्य में प्रकृति, न्याय दर्शन में अदृष्ट और मीमांसा में अपूर्व के नाम से अभिहित की गई है । बौद्ध दर्शन में वही कर्म के साथ साथ अविद्या, संस्कार और वासना के नाम से भी जानी जाती है । न्याय दर्शन में अदृष्ट और संस्कार तथा वैशेषिक दर्शन में धर्माधर्म भी जैन दर्शन के कर्म के समानार्थक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति (त्रिगुणात्मकसत्ता) और योग दर्शन में आशय शब्द भी इसी अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । शैव दर्शन का 'पाश' शब्द भी जैन दर्शन के कर्म का समानार्थक है । यद्यपि उपरोक्त शब्द कर्म के पर्यायवाचो कहे जा सकते हैं फिर भी प्रत्येक शब्द अपने गहन विश्लेषण में एक दूसरे से पृथक अर्थ की अभिव्यंजना भी करता है । फिर भी सभी विचारणाओं में एक समानता है और वह यह कि सभी कर्म संस्कार को आत्मा के बन्धन या दुःख के कारण के रूप में स्वीकार करते हैं । जैन विचारणा दो प्रकार के कारण मानती हैं-१- निमित्त कारण और २. उपादान कारण । कर्म सिद्धान्त में कर्म के निमित्त कारण के रूप में कर्म वर्गणा तथा उपादान कारण के रूप में आत्मा को स्वीकार किया गया है । कर्म का भौतिक स्वरूप : जैन दर्शन में बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया की व्याख्या चिना अजीब (जद) तत्व की विवेचना के सम्भव नहीं । आत्मा के बन्धन का कारण क्या ? जब यह प्रश्न जैन दार्शनिकों के समक्ष आया तो उन्होंने बताया कि आत्मा के बन्धन का कारण मात्र आत्मा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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