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________________ जैन शासक अमोघवर्षं प्रथम १०. सूत्र 'ख्याते दृश्ये' (४।३।२०८) के उदाहरण रूप में 'अदहदमौघवर्षोऽरातीन्' उल्लिखित है । अमोघवर्ष प्रथम द्वारा शत्रुशासकों के दाह का उल्लेख एक अभिलेख में भी प्राप्त होता है- 'भूपालात्कंडिकाभि (कंटकामान् ) सपदि विघटितान्वेष्टयित्वा ददाह ।' - ( कापडवंज अभिलेख, एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १, पृ० ५४, श्लोक ९ ) । ११. अमोघवर्ष राजेन्द्रराज्यगुणोदया । —समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ - - जयधवलाटीका, प्रशस्ति, श्लोक ८, १२ । १२. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५ अम्बालाल प्रे० शाह, वाराणसी, १९६९, प्रस्तावना, पृ० २९ । १३. श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वष्टा हितैषिणा । ७७ देवस्य नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥ - मंगलाचरण, श्लोक ३, ८ । १४. आर्कयोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इंडिया, भाग ४, पृ० ८७-८९ । १५. इण्डियन आर्किटेक्चर, भाग १, पी. ब्राउन, बम्बई, १९५६, पृ० ९० दि आर्ट आफ दि राष्ट्रकूट, ए० गोस्वामी एवं ओ. सी. गांगुली, कलकत्ता, १९५८, पृ० २४-२५ । १६. वही । १७. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरदेवीं च दीनस्ततो लक्ष्मं कोटिमलेरवयत्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः । येनात्याजि तनुः स्वराज्यमसकृद्वाह्यात्यर्थकः का कथा । ह्रीस्तस्योन्नति राष्ट्रकूट तिलको दातेति कीर्त्यामपि ॥ -संजान अभिलेख, एपिग्राफिया इंडिका, भाग १८, पृ. २४८, श्लोक ४८ । १८. गूर्जर नरेन्द्र कीर्तेरन्तः पतिता शशाङ्कशुभ्रया । गुप्तैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीर्तिः ॥ -- प्रशस्ति, श्लोक १२ । १९. कोन्नूर अभिलेख, एपिग्राफिया इंडिका, भाग ६, पृ० ३१, श्लोक ३५-३६ ॥ २०. दि जर्नल आफ दि बाम्बे ब्रांच आफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, भाग १० पृ० १६७ एवं आगे । श्लोक ३५ एवं आगे । २१. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृ० ३१ २२. द्रष्टव्य उपरि पाद टिप्पणी १७, १५ । एक जैन मंदिर के लिए दिये गये दान का संदर्भ अमोघवर्ष प्रथम के काल के राणेवेन्नूर कन्नड़ शोध संग्रहालय अभिलेख में भी प्राप्त है । कर्णाटक इंस्क्रिप्शस, भाग १, पृ० १४- १६) । २३. द्रष्टव्य, ए. एस. अल्तेकर, दि राष्ट्रकूटज एण्ड देयर टाइम्स, पृष्ठ ३१२ । २४. संजान अभिलेख, श्लोक, ४७, उपरि टिप्पणी ५ में उद्धृत । २५. संजान अभिलेख, श्लोक ५० ( भग्ना समस्तभूपालमुद्रा गरुड़मुद्रया) कोन्नूर अभिलेख, श्लोक १३ (गरुड़मुद्रया) एवं सिरुर अभिलेख पंक्ति १३ ( गरूड़ लाञ्छन ) । मुद्रा पर परिसंवाद क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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