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________________ ६५ गुजरात में जैनधर्म और जैन कला जैनधर्म के प्रभावकारी होने की बात वर्धमानपुर एवं दोस्तटिका में जैनमन्दिरों के अवस्थित होने से भी प्रमाणित होती है ।२९. . चापोतकटों के शासनकाल में जैनधर्म ने काफी प्रगति की तथा उसकी नींव अत्यन्त दृढ़ हो गयी। वनराज ने देवचन्द्रसूरि को अपना गुरु स्वीकार किया तथा जैनधर्म अंगीकार कर लिया। शीलगुणसूरि के निर्देश पर तथा जैनधर्म के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उसने अपनी राजधानी अणहिलपाटक में पंचासर पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया।३१ जैनधर्म के प्रति उसके सम्मान का संकेत इस बात से भी मिलता है कि उसने चैत्यवासी जैन साधुओं की सलाह पर अचैत्यवासी साधुओं को राजधानी से निष्कासित कर दिया ।७२ चौलुक्य या सोलंकी काल में जैनधर्म अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ। सोलंकी राजाओं ने जैनधर्म को यथोचित प्रश्रय प्रदान किया। सोलंकीवंश का संस्थापक मूलराज (लग० ९४१-९९६ ई०) शैव था परन्तु जैनधर्म के प्रति वह उदार था क्योंकि उसने युवराज चामुण्डराय को वरुणसर्मक (वर्तमान वदस्मा-मेहसाना) स्थित जैन मन्दिर के संरक्षणार्थ एक भूमिदान की अनुमति दी थी ।33 मूलराज ने अपनी राजधानी अणहिलपाटक में एक जैन मन्दिर का भी निर्माण कराया था। संभवतः वडनगर के आदिनाथ मन्दिर का पीठ और वेदिबन्ध इसी के राजकाल में निर्मित हुए हैं। मूलराज के बाद क्रमशः चामुण्डराज (ल० ९९६-१००९ ई.) और दुर्लभराज (ल० १००९-१०२३ ई०) सिंहासनारूढ़ हुए। हेमचन्द्र से ज्ञात होता है कि जैन सिद्धान्तों को भलीभाँति समझने के उपरान्त दुर्लभराज ने विद्वान् जैन श्रमणों का आदरसत्कार किया और साथ ही साथ बौद्धों के एकान्तवाद का विरोध किया। 3* हेमचन्द्र के इस कथन का स्पष्टीकरण द्वयाश्रयकाव्य पर लिखित अभयतिलक की टीका में इस प्रकार किया गया है-दुर्लभराज ने जैन सिद्धान्तों का ज्ञान जिनेश्वरसूरि से प्राप्त किया और जब जिनेश्वरसूरि ने एक वादविवाद में बौद्धों के एकान्तवाद का खण्डन किया तो उसने भी बौद्ध सिद्धान्तों का प्रत्याख्यान किया ।६ जिनेश्वरसूरि के पाण्डित्य से प्रसन्न होकर दुर्लभराज ने उन्हें 'खरतर' की उपाधि प्रदान की। इस काल में कई जैन मन्दिर निर्मित हुए जिनमें आज केवल थान का जैन मन्दिर ही अवशिष्ट है। दुर्लभराज का उत्तराधिकारी भीम प्रथम (ल० १०२३-१०६५ ई.) शैव धर्मावलम्बी था परन्तु उसने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं डाली। इसका सबसे प्रबल प्रमाण उसके दण्डनायक विमलशाह द्वारा निर्मित परिसंवाद-x Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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