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________________ ४८ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन १६१) की नेमिनाथ और महावीर की दो मूर्तियों में पहली बार लांछन का, और अकोटा की ऋषभनाथ की मूर्ति (लगभग छठी शती ई.) में यक्ष-यक्षी (सर्वानुभूति एवं अंबिका) का चित्रण हुआ । गुप्तकाल में सिंहासन के छोरों एवं परिकर में छोटी जिन मूर्तियों का भी अंकन प्रारम्भ हुआ। अकोटा की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में पहली बार पीठिका के मध्य में धर्मचक्र के दोनों ओर दो मृगों का चित्रण किया गया, जो सम्भवतः बौद्ध कला का प्रभाव है। लगभग आठवीं-नवीं शती ई० में २४ जिनों के स्वतन्त्र लांछनों की सूची बनी, जो कहावलो, प्रवचनसारोद्धार, एवं तिलोयपण्णत्ति में सुरक्षित हैं ।३७ श्वेतांबर और दिगम्बर परम्पराओं में सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ, अनन्तनाथ एवं अरनाथ के अतिरिक्त अन्य जिनों के लांछनों में कोई भिन्नता नहीं है। मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथ के साथ क्रमशः स्वस्तिक और सर्प लांछनों का अंकन दुर्लभ है, क्योंकि पाँच और सात सर्पफणों के छत्रों के प्रदर्शन के बाद जिनों की पहचान के लिए लांछनों का प्रदर्शन आवश्यक नहीं समझा गया । पर लटकती जटाओं में शोभित ऋषभनाथ के साथ वृषभलांछन का चित्रण नियमित था, क्योंकि आठवीं शती ई. के बाद के दिगम्बर स्थलों (देवगढ़, खजुराहो) में ऋषभनाथ के साथ-साथ अन्य जिन मूर्तियों पर भी जटाएँ प्रदर्शित की गयी हैं। मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से लगभग नवीं-दसवीं शती ई. तक जिन मूर्तियाँ पूर्णतः विकसित हो गईं। पूर्ण विकसित जिन मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों के साथ ही परिकर में छोटी जिन मूर्तियों, नवग्रहों, गजाकृतियों, धर्मचक्र, विद्याओं एवं अन्य आकृतियों का चित्रण हुआ। सिंहासन के मध्य में पद्म से युक्त शांतिदेवी, गजों एवं मृगों तथा कलशधारी गोमुख एवं वीणा और वेणुवादन करती आकृतियों का चित्रण केवल श्वेतांबर स्थलों पर लोकप्रिय था । श्वेतांबर ग्रन्थ वास्तुविद्या के जिनपरिकरलक्षण (२२.१०-१२, ३३-३९) में इन विशेषताओं के उल्लेख हैं । ग्यारहवीं से तेरहवीं शती ई. के मध्य श्वेतांबर स्थलों पर ऋषभनाथ, शांतिनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर के जीवनदृश्यों का विशद अंकन हुआ। जिसके उदाहरण ओसिया की देवकुलिकाओं, कुम्भारिया के शांतिनाथ एवं महावीर मन्दिरों, जालोर के पार्श्वनाथ मन्दिर और आबू के विमलवसही और लूणवसही से मिले हैं। इनमें जिनों के पंचकल्याणकों (च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य, 'निर्वाण) एवं कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं को दरशाया गया है, जिनमें भरत और बाहुबली के युद्ध, शांतिनाथ के पूर्वजन्म में कपोत की प्राणरक्षा की कथा, नेमिनाथ के परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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