SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन पक्षपातो न मे वारे न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमवचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। -लोकतत्त्वनिर्णय ११३८ । मेरा भगवान् महावीर के वचनों के प्रति पक्षपात नहीं और न कपिल से द्वेष है, जो युक्तियुक्त वचन हैं उनका पालन होना चाहिए। इस प्रकार जैन विचारक आत्मतत्त्व की प्रतिष्ठा करके परपदार्थ के प्रति राग दृष्टि का प्रहाण करता है । तब वह विशुद्ध आत्मतत्त्व की ओर उन्मुख हो सहज एवं निर्विकार आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। यह ही सम्यक् दृष्टि है। महावीर ने स्वरूप की मर्यादा का बोध न होने से आत्म-तृष्णा की उत्पत्ति मानी है। पर यह बोध होते ही व्यक्ति समझने लगता है कि जो मैं अन्य वस्तुओं के प्रति अभितृष्ण था वह मेरे अज्ञान का फल था। मैं तो चिन्मात्र हूँ, यह जानते ही वह सकल आस्रवों से मुक्त हो जाता है। यह आत्मा तीन प्रकार का है बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा । इस प्रकार बाह्याभिमुखी आसक्ति का त्याग कर, स्वपर विवेक को समझ, व्यक्ति समस्त कर्मफल कलंकों से रहित होकर परमात्मा के स्वरूप का अधिगम करता है। तब ही वह मुक्त हो पाता है। इस मुक्ति में बौद्धों की भाँति दीप का बुझ जाना या वैशेषिकों की भाँति विशेष गुणों का उच्छेद नहीं रहता, इसमें तो आत्मा चैतन्य स्वरूप होकर ज्ञानवान् रहता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का निजत्व है आत्मलाभं विदुर्मोक्ष जीवनस्यातमलक्षयात् । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥ -सिद्धिविनिश्चय १-३८४ । अतः वह सब अन्य कर्मबन्धनों से मुक्त होकर भी निज चैतन्यस्वरूप से उच्छिन्न नहीं होता, अतः आत्मा चैतन्य तथा ज्ञानवान् है, यह दृष्टि ही जैनों की सम्यक् दृष्टि है। इस सम्यक् ज्ञान की उत्पत्ति से व्यक्ति को जो स्वरूप बोध एवं स्वाधिकार का बोध होता है। उसके कारण उसका एक विशेष चरित्र विकसित होता है। वह दूसरे के अधिकारों को हड़पने के लिए व्याकुल नहीं होता, अतः व्यक्ति स्वातन्त्र्य के आधार पर स्वावलम्बी चर्या ही सम्यक् चारित्र है। अतः जैन विचारकों की जीवन-साधना अहिंसा के मौलिक समत्व पर प्रतिष्ठित होकर प्राणिमात्र के प्रति अभय एवं जीवित रहने की सतत् विचार साधना है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy