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________________ ३४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन सामने रहता है । यदि उपर्युक्त तीन किसी नये सुव्यवस्थित जीवन-दर्शन को दे पाते हैं तब तो वे ठीक माने जाएँगे । यदि नहीं, तो मात्र खयाली पुलाव होंगे । जैन दर्शन की यह विशेषता है कि वह तत्त्व की दृष्टि से भूत की यथार्थ सत्ता, ज्ञान की दृष्टि से अनेकान्तता एवं आचार की दृष्टि से अहिंसक पद्धति पर विश्वास करता है | यह विवेचन जैसे कहने में सरल लगता है वैसे परिपालन में भी सरल है पर समाज की हठवादिता के कारण सर्वजन - मान्य होने में कठिन है । क्योंकि कोई भी समाज किसी दूसरे विचार को तब तक नहीं मानता जब तक उसके समाज की सारी व्यवस्थाओं का दूसरा विचार सुधार के साथ स्थापन न करे । इसीलिए व्यक्ति जो जहाँ प्रतिष्ठित है अपने को सुव्यवस्थित देखकर ही अन्य स्थान पर बदलाव करता है वरना अस्तित्व के समाप्त होने के भय में अपने बिगड़े विचारों को ही सही मान कर चलता रहता है । इसीलिए विचारों, व्यवस्थाओं, स्थानों का संघर्ष पैदा होता है । पर इन संघर्षो को कम से कम संघर्ष का स्वरूप प्रदान करने में जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण योगदान है । छठीं शती ई. पू. में जब आत्मा और अनात्मा का नित्य और क्षणिकता का, वेदविहित व्यवस्था तथा मनुष्य-निर्मित व्यवस्था का संघर्ष खड़ा हुआ था तब भगवान् महावीर के विचार कुछ अधिक कारगर बन पाये । यद्यपि ये विचारपरम्परा से महावीर को प्राप्त हुए थे पर उस समय के समाज में स्थित कलह को मिटाने में ये काफी सहायक बन सके, अतएव इनका मूल्य बढ़ गया । तत्त्व-ज्ञान में अनेकान्त का तात्पर्य किसी वस्तु विषय के बारे में एक प्रकार के परामर्श के विषय में एक दृष्टि से सत्य होने तथा दूसरी दृष्टि से न होने की सम्भावना से है । यह प्रतिदिन के संघर्षों में बचाव की दृष्टि है । जो सत्य है, पर लोग अपनी विशेष दृष्टि के कारण इसका उपहास किया करते हैं जो यथार्थ चिन्तन में बाधक हो सकती है । इसी प्रकार वस्तु के स्वरूप में कुछ बदलाव कुछ एकता दिखलाई देती है जो जैन दृष्टि से उत्पाद-व्यय-ध्रुवता की परिभाषा में बिल्कुल सटीक बैठेगी, पर कोई विशेष दृष्टि के कारण यदि प्रत्येक वस्तु को क्षणमात्र स्थायी या कोई नित्य माने तो यह मात्र संघर्ष के और क्या पैदा कर सकती है । विचार तथा तत्त्व- ज्ञान की परख व्यवहार से की जाती है । व्यवहार को अहिंसात्मक रुख तभी दिया जाता है जब व्यक्ति दूसरे के विचारों एवं तत्त्व- चिन्तन का समादर करता है । भगवान् महावीर का आधार अहिंसक स्वरूप का परिचायक परिसंवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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