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________________ ३०४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन ८. नेहर-मूल शब्द ज्ञातिगृह से णाइ हर> नौहर नैहर के रूप में विकसित हुआ । इसी तरह मातृगृह से मैहर का विकास हुआ। मातृ गृह > माइ हर - मैहर । ९. पानबीड़ा-संभवतः इसे देशी मान लिया गया है। पर यह पर्ण + वीटक से विकसित शब्द है पर्णवीटक > पण्ण वीउअ>पान बीड़ा। पुष्पदंत ने 'पण्ण वीउअ' का प्रयोग किया है । एक पिता अपनी रूठी हुई कन्या को समझाता हुआ कहता है:'पुत्ति पष्णवीडि दंतग्गहिं खंडहि' हे पुत्री तुम पान के बीड़े को दांतों से काटो। १०. ननसार-मूल शब्द है ज्ञातिशाला। उससे ननिहाल और ननसार शब्द बनते हैं। 'नन' दोनों में समान रूप से है जो ज्ञाति से न्नाइनानि.> ननि नन के रूप में विकसित हुआ । शाला के दो रूप संभव हैं सार और हाल । इस प्रकार ननसार ननिहाल रूप बनते हैं। ११. नवेला-अलबेला-मूल शब्द नवतर से नवअर >नवइर>नवर > नवेल>नवेला विकसित है। नवेला के पूर्व में 'अ' के आगम के कारण अनबेला बनता है। फिर न का ल से विनिमय के कारण अलबेला रूप बनता है । यह उसी प्रक्रिया से बनता है जिससे नोखा ( नवक ) से अनोखा बनता है। १२ लाहोर-मूल शब्द है शलातुर । पाणिनि इसी गाँव के शलातुरीय थे, शलातुर हलाउर >लाहउर >लाहोर । हलाउर से लाइउर वर्णव्यत्यय के कारण बना। १३. खरोष्ठी-इसकी व्युत्पत्ति के विषय में भयंकर अटकलबाजी से काम लिया गया है । खर ( गवे) के ओठों से इसका कोई संबंध नहीं। खरोष्ठी लिपि की शैली 'देवनागरी' की शैली से उल्टी है। जिसमें लिखने की शैली पीछे से हो, अर्थात् जिसमें बाएं से दाएं लिखा जाए व्युत्पत्ति होगी--अक्षर पृष्ठिका > अक्खर + उष्ठिआ अखरोष्ठिआ> खरोष्ठी । नियमानुसार होना चाहिए खरोट्ठी।। १४. ढोर इसकी व्युत्पत्ति शब्दकोश में नहीं है, अतः इसे देशी मान लिया गया । वास्तव में इसका मूल शब्द है 'धवल' जिसके दो अर्थ हैं ---धौरा बैल और सफेद रंग। धवल >धअल > धउल>धोल = धोर > ढोर । यह बहुत व्यापक शब्द है जिसके अर्थ का विस्तार हो गया। १५. रैनबसेरा--रजनी वसतिगृह - रात में ठहरने का ठिकाना । व्युत्पत्ति हैरअणी वसइहर > रेण वसइ अर>रैन बसेरा । १६. सवार-भारतीय आर्यभाषा मूलक शब्द है। इसे फारसी से विकसित मानना ठीक नहीं है । अश्वारोहक से-असवा रोहउ>असवार अ उ>असवार उ> परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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