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________________ २८० जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन हरी इव (ऋ१-२८-७) । अक्षी इव ( ऋ. २-३९-५) (१) प्राकृत में इवर्ण या उवर्ण के आगे विजातीय स्वर रहने पर उनकी परस्पर सन्धि नहीं होती है। न पुवर्णस्यास्वे (२६) जैसे:-उ इन्द्रो, दणु इन्द्र, हावलि अरुणो। (२) ए दातो स्वरे ( १/७ ) प्राकृत में ए और ओ के पश्चात् यदि कोई स्वर आ जाय तो परस्पर में सन्धि नहीं होती है । जैसे-नहुल्लिहणे आ (५६. गुण सन्धि आ मतेन्द्रण (ऋ १-२०-५) विलयेसो ( विलया ईसो) इ हेन्द्राणीमुय ( ऋ १-२२-१२) सासोसासा ( सास उसासा ) धनेव (ऋ१-३६-१६) गूढोअरं ( गूढ उअरं) इ हेव ( ऋ१-३७-३) राए सि ( राअ एसि) अस्येद् ( ऋ १-६१-११) येनोधतो ( अथर्व ४-२४-६) सूक्तो ( यजु ८-२५) अपवाद शचीव-इन्द्र (ऋ१-५३-३) मम इयं ( ऋ१-५७-५) अस्मा इद् (ऋ१-६१-६) सत्य इन्द्र (ऋ१-६३-३) मृगा इव ( ऋ१-६९-७) (५७) प्रकृति सन्धि महया अदितये ( ऋ१-२४-२ ) पहावलि अरुणो अवशा इति ( अथ० १२-४-४२) बहु अवऊढो महां असि ( साम-३-२७६ ) दणु इन्द सहिर लित्तो तन्न अतय (सा० ३-२७४) वि अ इन्द्रवायु इमे (ऋ१-२-४) महुई परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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