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________________ २६८ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन वैदिक पायर्ड हरी दुर्लभ पूसो दुअल्लं महि यथा :(१) ह्रस्व का दीर्घ संस्कृत प्राकृत पिना' 3 (ऋ, १,१५,५) अश्व आसो अथा (ऋ, १,७६,३) वर्षः वासो मेना' (अथर्व-१,९,३) प्रकट हरी (अथर्व १,६,२) हरि दूलह (अथ ४,९,८) दूलह पूरुष१५ (यजु-१२-७८-१) पुरुष, पुष्य वायू (ऋ १-२-४) वायु वायू दूनाश (ऋ४-९-८) दुर्नाश, दुकूल दीर्घ का ह्रस्व अमत्र (ऋ२-३६-४) अमात्र अमत्त महि (ऋ १-११९-४) मही रोदसिप्रा (ऋ १०-८८-१०) रौदसीप्रा-गभीरम् गहिरं प्राकृत में एक विशेष प्रवृत्ति है कि शब्दों के स्वर दूसरे स्वरों में बदल जाते हैं । जैसे-अ का इ, उ आदि । यही प्रवृत्ति वैदिक भाषा में मिलती है। (३) स्वरागम महित्व (अथर्व ४-२-४) महत्व, उत्तम उत्तिमो अङ्गिर (यजु १२-८-१) अंकार, मध्यमः मज्झिमो तनुवम् (त, सं ७-२२-१) तन्वम् तणुवं सुवर्ग (तै० ४-२-३) सवर्गः सुवग्गो त्रियम्बकम् (वै० प्र०६-४-८६) त्र्यम्बकम्, व्यजन विअणं सुधियो६ सुध्यो, कूपास कुप्पिसो, कुप्पासो रात्रिया'७ राज्या, द्रव्य दविय (४) स्वरलोप पूष्णे (यजु-३-८-१५) पूषण, प्रस्तावः परुष्परु (अथर्व ४-९-४) परुषापरु, दावाग्नि दवग्गी उत त्मना (यजु १३-५२-१) उत आत्मना, अलावु लावू पत्थवो परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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