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________________ २५० जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन करता है । इसी दबाव में आकर क्रांतिकारी शक्तियाँ कुण्ठित होकर अपने को अपनेअपने संप्रदाय में ही घेर लेती हैं। विरोधी दबाव में भी हिम्मत जाती रहती है कि बुद्ध और महावीर के समतावादी एवं मानवतावादी विचारों को जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत करें। ऐसे लोग अपनी कृत्रिम श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने के लिए कुलश्रेष्ठता, जाति-श्रेष्ठता को स्वीकृति प्रदान करते हैं और वास्तव में महावीर और बुद्ध के नाम से उनके विरुद्ध शताब्दियों से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस सम्पूर्ण वात्याचक्र का भेद करना होगा। इसके लिए आवश्यक है -स्त्री-शूद्र एवं जनजातियों तक पहुँचकर उन्हें महावीर और बुद्ध के संदेशों से सांत्वना प्रदान की जाय । इस प्रसंग में प्राकृत एवं अपभ्रंशों का वर्तमान प्रादेशिक भाषाओं और स्थानीय बोलियों के संबंध को जोड़ना नितांत आवश्यक होगा। इस प्रकार की अनेकानेक बातें हैं जिनकी ओर ध्यान देना होगा। सर्वाधिक ध्यान इस ओर देना होगा कि प्राकृतों की समस्या पर सांप्रदायिकता की दृष्टि से नहीं, राष्ट्रीय परिवेश में विचार किया जाय और उसके समाधान को भी भारतीय संस्कति के विराट संदर्भ में स्थापित करें। किन्तु इसके प्रारंभ का उत्तरदायित्व उन्हीं लोगों पर है, जो श्रमण-परंपरा से प्रभावित हैं । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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