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________________ १८८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन नियन्ता मानना भ्रम है। संहति रहित सूक्ष्म पुद्गल, सूक्ष्म शरीर का रहस्यमय व्यवहार केवल उनके लिए अलौकिक है जो सूक्ष्म के व्यवहार से अपरिचित हैं । जैनों ने उन सूक्ष्म पुद्गलों को कर्म कहा जिसके कारण जीव सुख दुःख पाता है। कर्म जड़ है अतः सुख दुःख की प्रक्रिया भी पौद्गलिक है। कर्म के समूह जो जीव के साथ रहते हैं वे कार्मण शरीर कहलाते हैं। इस सूक्ष्म कार्मण शरीर की अवधारणा से ही जैन दर्शन में कर्मवाद का सिद्धान्त स्थिर हुआ है। कर्मवाद का सिद्धान्त अपने आप में एक स्वतन्त्र विषय है। इसी सिद्धान्त ने ईश्वर को कर्ता तथा नियन्ता के रूप में अस्वीकार किया है। (२) जन्म : जन्म का अर्थ है उत्पन्न होना । मृत्यु के बाद जीव का पुनः स्थूल शरीर धारण करना पुनर्जन्म है। जैनों के अनुसार मृत्यु के साथ जीव का इस भव का स्थूल शरीर (औदारिक अथवा वैक्रियक) तो छूट जाता है लेकिन कार्मण और तैजस शरीर नये जन्म से पूर्व जीव के साथ ही रहते हैं । ये शरीर ही पुनर्जन्म के कारण हैं। ये सूक्ष्म शरीर ही जीव को गति देकर अन्य स्थान पर ले जाते हैं जहाँ नया आहार प्राप्त कर नये स्थूल शरीर का निर्माण प्रारम्भ होता है। ये शरीर पुनर्जन्म के समय जीव को नये स्थान पर कुछ ही समय में बिना प्रतिघात के लोकान्त तक भी पहुँचा देते हैं। जैनों ने इसे आश्चर्यकारी नहीं माना क्योंकि सूक्ष्म शरीर, संहति रहित होते हैं अतः गमन करने में कोई प्रतिघात नहीं होता। स्थानांग सूत्र में इसका अत्यन्त रोचक वर्णन आया है। __एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय अन्तराल गति को दो प्रकार का कहा है-ऋजु और विग्रह । ऋजु गति एक समय की होती है और जीव एक समय में ही नये स्थान पर पहुँच जाता है अगर वह स्थान आकाश की समश्रेणी में हो । यदि उत्पत्ति स्थान विश्रेणी में होता है तो जीव विग्रह गति से जाता है। इस विग्रह गति में एक घुमाव होता है तो उसका कालमान दो समय का, जिसमें दो घुमाव हों उसका काल मान तीन समय का और तीन घुमाव हों तो उसका काल मान चार समय का होता है। इस अन्तर का कारण लोक की बनावट है। भगवती सूत्र में वर्णन है कि लोक और अलोक की सीमा पर ऐसे कोने हैं कि वहाँ जीव को जन्म लेने में अधिकतम कालमान, चार समय लग सकते हैं और जीव को विग्रह गति से जाना होता है। इस अन्तराल गति में जीव के साथ तैजस और कार्मण शरीर रहते हैं। अतः संसारी जीव सदैव इन सूक्ष्म शरीरों से युक्त रहता है। पुनर्जन्म का कारण भी ये शरीर हैं और इनकी भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रिया ही परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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