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________________ १४८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन वाले द्रष्टा को तटस्थ आध्यात्मिक विवेक शक्ति जागृत रहे तो संयम या संवेगों का निराकरण घटित होता है । निराकरण की प्रक्रिया में योग के अन्य अंग भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं । योग के अनुसार चूँकि संवेगों का भौतिक एवं मानसिक दोनों ही आयाम है, अतः उनके निराकरण में आसन एवं प्राणायाम की प्रक्रिया भी कुछ सीमा तक सहायक हो सकती है । आसन एवं प्राणायाम में साधी गयी शरीर की एवं श्वासप्रश्वास की सन्तुलित स्थिति संवेगों के भौतिक पक्ष का निराकरण करने में सहायता कर सकती है । योग जेम्स लैंग के इस सिद्धान्त से कुछ सीमा तक सहमत हो सकता है कि उत्तेजक तत्त्व के परिज्ञान के पश्चात् ही शरीर में कुछ परिवर्तन होते हैं और उन परिवर्तनों का भाव हो संवेग है । जैम्सलैंग के सिद्धान्त के अनुसार सामान्य ज्ञान का अनुकरण कर हम कहते हैं कि हमारा धन खो गया है, हमें दुःख होता है और हम रो पड़ते हैं । हमें भालू से भेंट होती है, हम डर जाते हैं और हम भागते हैं । प्रतिद्वन्द्वि हमारा अपमान करता है, हमें क्रोध होता है और उसे पीटते हैं । इस प्रकार का अनुक्रम त्रुटिपूर्ण है - अधिक बौद्धिक कथन यह है कि हम रोते हैं इसी से हमें दुःख होता है, हम पीटते हैं अतः क्रुद्ध हो जाते हैं, हम काँपते हैं और डर जाते हैं । १२ परन्तु योग जैम्सलैंग के समान संवेगों को मात्र शारीरिक परिवर्तनों के रूप में ही व्याख्यायित नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि में संवेगों के पूर्ण निराकरण के लिए चित् शक्ति को, जो अपने अन्तिम स्वरूप में राग-विराग से मुक्त है, विकसित एवं जागृत करने की आवश्यकता है । बौद्धयोग में समत्व और विपश्यना दोनों ही पद्धतियों में स्वीकार की गयी सजगता (स्मृति) की आवश्यकता तथा जैन योग में 'जाणई पासई' की साधना उपर्युक्त तथ्य पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं । उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह नहीं है कि योग उचित वासनाओं की पूर्ति को स्थान नहीं देता । वह जैविक आवश्यकताओं की उचित पूर्ति को स्थान देता है और यह तथ्य जैनयोग के अणुव्रतों से स्पष्ट होता है । वस्तुतः भारतीय योग के पीछे जो मूलभूत आध्यात्मिक दृष्टि है, वह जैविक मूल्यों की अस्वीकृति नहीं है, परन्तु जैविक मूल्यों के ऊपर आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि है, जैसे कि स्वयं अध्यात्म अधि + आत्म शब्द से सूचित होता है । वस्तुतः योग की साधना विवेक पर आधारित अनाशक्ति की साधना है, और अनाशक्ति का भाव एवं उसी प्रकार विवेक पर आधारित संयम, दमन नहीं हो सकता । परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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