SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन की प्रक्रिया को मान्यता दी गयी है। कायोत्सर्ग की विधि को एवं आवश्यकनियुक्ति के इस कथन को देखकर कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान के समय श्वास को मंद करना चाहिये, कहा जा सकता है कि जैनयोग ने भी मन की शान्ति के लिए प्राणायाम को कुछ सीमा तक स्वीकार किया था। पातंजलयोग के अनुसार प्रत्याहार, चित्त की अनुगामी बनी हुई इन्द्रियों का अपने आप विषयों से विरत होना है। प्रत्याहार के इस स्वरूप को जैनयोगीय प्रतिसंलीनता के प्रकारों में अर्थात् इन्द्रिय प्रतिसंलीनता एवं कषाय प्रतिसंलीनता में खोजा जा सकता है। श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय प्रचार को रोकना और प्राप्त शब्दादि विषयों में राग-द्वेष रहित होना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है, तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभ के उदय को असफल करना कषाय प्रतिसलीनता है। जैनयोग के अनुसार द्वितीय के अभाव में प्रथम प्रतिसंलीनता का कोई मूल्य नहीं है, दूसरे शब्दों में राग-द्वेष आदि विकारों की शान्ति के प्रकाश में ही इन्द्रियों की विषयविमुखता को साधना के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट कहा गया है कि आँखों के सामने आते हुये रूप और कानों में पड़ते हुये शब्द आदि विषयों का परिहार शक्य नहीं है, ऐसे प्रसंगों में साधक राग-द्वेष से दूर रहे।' अनावश्यक रूप से होने वाले शक्ति के व्यय को टालने के लिए जहाँ इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है, वहाँ भी इन्द्रिय-निग्रह की निष्पत्ति रागद्वेष की शान्ति में होनी चाहिये और ऐसा इन्द्रिय-निग्रह साधना के लिए उचित है, अन्यथा वह एक छल, दमन या उपशमन है और ऐसे उपशमन को जैनयोग मान्यता नहीं देता है, यह उसके गुणस्थान की प्रक्रिया से अत्यन्त स्पष्ट होता है। पातञ्जलयोगीय धारणा, ध्यान एवं समाधि का विस्तृत क्षेत्र जैनयोग के ध्यान में समाविष्ट हो जाता है। ध्यान की प्रक्रिया द्वारा साधी गयी मन की एकाग्रता में चैतन्य शक्ति को जागृत रखने का प्रयत्न किया जाता है। जैनयोग के स्वरूप को समझने के बाद उसकी उपयोगिता को समझने के लिए मानव मन के संत्रास को भी समझना होगा। वैज्ञानिक, तकनीकी और बौद्धिक जानकारी के चरम विकास के कारण एक ओर मानव के ज्ञान कोष में और उसकी सुख-सुविधाओं में अभूतपूर्व बृद्धि हुयी है तो दूसरी ओर मानव की बढ़ती हयी महत्वाकांक्षाओं, प्रतिस्पर्धाओं एवं तृष्णाओं के कारण उसकी अशान्त, विशिष्ट एवं तनावपूर्ण अवस्था में भी अभूतपूर्व बृद्धि हुयी है । भौतिक सुविधा और आर्थिक समृद्धि की अपरिमित बृद्धि मानव की मानसिक असंतुष्टि परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy