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________________ सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरप्रदेश के कतिपय विशिष्ट जैन व्यापारी १११ परेशानियों के बाद उनका हिसाब साफ हो सका था । चूँकि इस संदर्भ में बनारसीदास को सबलसिंह मोठिया की हवेली पर कई बार जाना पड़ा था, इसलिए बनारसीदास ने उनकी हवेली एवं दरबार के शानशौकत का विशेष उल्लेख किया है ।१४ वे लिखते हैं कि साहू जी का दरबार जिस तरह से सुसज्जित था, उस तरह उन्होंने इसके पूर्व नहीं देखा था । साहू जी तकिये के सहारे पड़े हैं, बंदीजन विरद पढ़ रहे है, नृत्यांगनाएँ नृत्य कर रही हैं, भाड़ भी मस्त हैं तथा सेठ जी के सेवक भी मगन हैं । १५ इस प्रकार बनारसीदास के विवरण से पता चलता है कि सेठ सबलसिंह मोठिया उस समय के एक अतिवैभवशाली सेठ (साहूकार) थे। इसके ही साथ वह एक ऐसे महाजन थे, जो साझेदारों को व्यापार करने के लिए आर्थिक सहायता भी प्रदान करते थे, अर्थात् वह रुपये के लेन-देन का भी कार्य करते थे। यद्यपि इनके द्वारा किया गया कोई धार्मिक कार्य का उल्लेख नहीं मिलता तथापि १६१० ई. में आगरा के जैन संघ की ओर से तपागच्छाचार्य विजयसेनसूरि को जो विज्ञप्ति पत्र भेजा गया था, उसमें संघपति सबल ही सबलसिंह जान पड़ते हैं।६ ३. वर्द्धमान कुँवर जी ___ वर्द्धमान कुंवर जी आगरा नगर के निवासी तथा संघपति की उपाधि से विभषित थे । ये दलाली का काम करते थे । १७ एक व्यापारी होने के साथ ही यह धार्मिक व्यक्ति भी थे। सन् १६१८ ई. में बनारसीदास आदि के साथ इन्होंने अहिच्छत्रा (बरेली) एवं हस्तिनापुर (मेरठ) आदि जैन तीर्थों की यात्रा की थी।८ सन् १६१० ई. के आगरा विज्ञप्ति पत्र में इनका भी नाम है। ४. साह बन्दीदास . ये आगरा नगर के निवासी थे तथा जवाहरात का व्यापार करते थे। इनके पिता का नाम दूलहसाह था । इनके बड़े भाई उत्तमचंद जौहरी भी आगरा में निवास करते हुए जवाहरात का व्यापार करते थे । साह बंदीदास जैन कवि बनारसीदास के बहनोई थे तथा मोतीकटरा मुहल्ले में रहकर मोती आदि जवाहरातों का व्यापार करते थे ।२ सन् १६११ ई. में बनारसीदास कपड़ा, जवाहरात, तेल, घी आदि वस्तुओं को १४. वही, पृ. ८२। १५. वही, पृ. ८२। १६. प्राचीन विज्ञप्ति पत्र पृ. २५ । १७. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलायें, पृ. २९१ । १८. वही, पृ. २९१ । १९. डॉ० हीरानंद शास्त्री, प्राचीन विज्ञप्ति पत्र , पृ. २५ । २०. बनारसीदास, बनारसीविलास अर्धकथानक की समीक्षा सहित, पृ. ५७ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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