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________________ 20585085803636888863 38888888888888888 भगवान महावीर के विचार : विश्वशान्ति के व्यवहार ॐ 88858528986288 888888888888888222222200028 - डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म होने पर भी उस युग में सर्व प्रथम पराधीनता, शोषण, ५९९ वर्ष ईसा पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वैशाली नरबलि, पशुबलि, यज्ञकर्म में हिंसा, नारी परतंत्रता के निकटस्थ कुण्डग्राम में वहाँ के नृपति सिद्धार्थ के आदि दुष्प्रवृत्तियों का विरोध किया और प्राणी-प्राणी यहाँ उनकी रानी प्रियकारिणी त्रिशला के गर्भ से हुआ में एकात्म रूप समानता मानकर अमीर-गरीब और था। जन्म के साथ उनका नाम वर्द्धमान रखा गया, ऊँच-नीच की दूरी समाप्त करने के लिए प्राणी हितार्थ क्योंकि उनके जन्म से संपूर्ण प्रकृति एवं मानव समाज अहिंसक एवं अपरिग्रही क्रान्ति का सूत्रपात किया। में हर स्तर पर वृद्धि देखी और अनुभव की गई। उनकी यह क्रान्ति न एक के लिए थी, न अनेक के लिए कालांतर में वे वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर थी; बल्कि सबके लिए थी। यह वर्गोदय के विपरीत के नाम से प्रसिद्ध हुये। वे सामान्य से असाधारण सर्वोदय की सार्थक पहल थी। उनका मानना था कि व्यक्तित्व को प्राप्त होकर महान बने। उनके सिद्धान्त मनुष्य जन्म से न दुराचारी होता है न सदाचारी; बल्कि और उनके द्वारा प्रतिपादित शिक्षाओं ने जन सामान्य उसके कुकर्म ही उसे दुराचारी और सुकर्म ही सदाचारी को प्रभावित और लाभान्वित किया। अत: आज भी बनाते हैं। उन्होंने जातिमूलक और दैवमूलक व्यवस्था पूज्य हैं और उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। के विपरीत पुरुषार्थवादी कर्ममूलक व्यवस्था को उचित मैं उनके २६०६वें जन्म दिवस चैत्र शुक्ल त्रयोदशी मानते हुए उद्घोष किया कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु के अवसर पर सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ कर्म से महान बनता है। अत: महान बनने के लिए ऐसे प्रेषित करते हुए कहना चाहता हूँ कि हम सभी उसी विचार एवं कार्य किये जायें जिनसे किसी भी प्राणी को मार्ग का अनुसरण करें, जिसे भगवान महावीर ने कष्ट न हो । यही कारण है कि उन्होंने शारीरिक (कायिक) बताया और प्रशस्त किया था। हिंसा के साथ-साथ वैचारिक हिंसा के त्याग पर बल व्यक्ति विकास करना चाहता है - देह से लेकर दिया। यह सत्य है कि मन के विचार ही वाणी में आत्मा तक। हम जिस परवेश में होंगे वहाँ यदि प्रस्फुटित होते हैं और कालान्तर में हिंसा का मार्ग अनुकूलता होगी तो विकास के अवसर होंगे और यदि पकड़कर शारीरिक क्षति या कायिक हिंसा में बदल प्रतिकूलता होगी तो विकास की गति रुकेगी। भगवान जाते हैं। अतः सबसे पहले हमें मन को पवित्र बनाना महावीर की दृष्टि में हमारी आत्मा ही सर्वोपरि साध्य चाहिए। मन की पवित्रता पवित्र भावों से ही आ सकती और मनुष्य शरीर ही सर्वोतम साधन है। भगवान महावीर है। इसलिए कहा गया है कि - के विचार नैतिकता, शरणागत वात्सल्य, समभाव, जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो। सौहार्द्र और सर्वोत्कर्ष की भावना से युक्त हैं। भगवान तं इच्छ परस्सवि य एत्ति एगं जिणसासणं ।। महावीर स्वामी ने स्वात्मबल से विपरीत परिस्थितियाँ अर्थात जैसे तम अपने प्रति चाहते हो और जैसा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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