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________________ महावीर की खिरती वणी के बीच अनेक प्रश्न कर करने पर श्रावक वर्णी, क्षुल्लक, ऐलक तथा आर्यिका अपना वैदुष्य प्रमाणित करना चाहते हैं। सभा में वे ज्यों बनकर आत्म-साधना में प्रवृत्त होते हैं। इसके उपरान्त ही प्रवेश करते हैं, उन्हें सामने ही मानस्तम्भ के दर्शन साधक साधु, उपाध्याय, आचार्य पद को प्राप्त करता हो जाते हैं और उनके दर्शन करते ही इनके सारे विरोध है। चार घातिया कर्मों को क्षयकर साधक स्वयं को अनुरोध में बदल गये। वे आगे बढ़ते प्रभु महावीर के अरिहंत पद पर प्रविष्ट पाता है। चौदहवें गुणस्थान को चरणों में विनत होकर गौतम गणधर की पदवी से प्राप्त कर क्षणभर में सिद्ध बन जाता है। ये ही पंच परमेष्ठी अलंकृत किये जाते हैं। उनकी निरक्षरी खिरती वाणी पद कहलाते हैं। जैन पंच परमेष्ठी की नित्य वंदना करते को समझने की सामर्थ्य रखने वाले गौतम ने उसे सरल हैं। यहाँ व्यक्ति की अपेक्षा आत्मिक गुणों की वंदना शब्दावलि में व्याख्यायित किया। करने का विधान है। व्यक्ति वंदना से परावलम्बन और तीर्थंकर लोक कल्याणार्थ तीर्थ की स्थापना आत्मिक गुणों की वंदना करने से स्वावलम्बन के करते हैं। तीर्थ का अभिप्राय है - भवसागर से पार संस्कार उत्पन्न हुआ करते हैं। उतरने के लिए वह तट अथवा किनारा विशेष । यहीं आज ऐसे ही महान सुधी साधक जिनकी साधना से साधक भवसागर पार उतरने का प्रयास करता है। साध से सिद्ध पद तक निर्बाध चलती है, के जन्म तीर्थंकर की दिव्य देशना सुनकर भले प्राणी अपना जयन्ती का संदर्भ उपलब्ध है। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी कल्याण करते हैं। व्यक्ति उदय और वर्गोदय के साथ- को भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाया जाता है। साथ भगवान वर्द्धमान सर्वोदय की व्यवस्था करते हैं। इस अवसर पर मात्र जयकारे लगाने से काम नहीं __गृहस्थ और साधक के रूप में समाज को दो चलता। काम तब पूरा होता है, जब उनके आत्मिक भागों में विभक्त किया गया। गृहस्थ के लिए षट् गुणों को देखकर अपनी बिसरी आत्मिक सत्ता को आवश्यकों के नित्य और निरन्तर पालने को निर्देश जगायें, उसे प्रयोग और उपयोग में लायें और कल्याण दिया गया। देव-दर्शन, गुरु-वंदना, तप, संयम, में प्रवृत्त होवें। स्वाध्याय और दान षट् आवश्यकों के पालने से जीवन इत्यलम् ! मूर्छा मुक्त हो जाता है। त्रेपन नैत्यिक पालने की - मंगल कलश, सर्वोदय नगर, अलीगढ़ क्रियायें गृहस्थ को श्रावक पद पर प्रोन्नत कर देती हैं। (उ.प्र.) २०२००१, फोन नं. ०५७१-२४१०४८६ छटवीं से लेकर ग्यारह प्रतिमाओं के पालन शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रह सन्धौ । भव सम-चित्तः सर्वत्र त्वं, वांछस्यशु यदि तीर्थकरत्वम् ।। शत्रु व मित्र में अथवा पुत्र व बंधु में तोड़-जोड़ करने का प्रयत्न मत कर। यदि तीर्थंकर पद प्राप्त करना चाहता है, तो सर्वत्र समता भावी बन। - सुभाषित महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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