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________________ रहकर (आध्यात्मिक सद्गुणों के विनाश के कारण) तक यह शरीर मुक्ति का साधन हो सकता है, तब तक अपकीर्ति की संभावना हो तो उस जीवन से मरण ही अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी इसे जिलाना श्रेष्ठ है।९२ चाहिए। जब हम यह देंखे कि आत्मा के अपने विकास आदरणीय काका कालेकर लिखते हैं कि मत्य के प्रयत्न में शरीर बाधारूप ही होता है, तब हमें उसे शिकारी के समान हमारे पीछे पडे और हम बचने के छोड़ना चाहिए। जो किसी हालत में जीना चाहते हैं. लिए भागते जायें यह दृश्य मनुष्य को शोभा नहीं देता। उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से उब जीवन का प्रयोजन समाप्त हआ. ऐसा देखते ही मत्य कर अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है. तो को आदरणीय अतिथि समझकर उसे आमंत्रण देना, उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छास्वीकत है और जो मरण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य मरण के द्वारा जीवन को कतार्थ करना, यह एक सन्दर नहीं जानते। व्यापक जीवन में, जीना और मरना दोनों आदर्श है। आत्महत्या को नैतिक दधि से उचित मानते का अन्तर्भाव होता है, उन्मेष और निमेष दोनों क्रियाएँ हए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या नहीं कहें, निराश मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी करती है। १६ होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ देना यह भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन द्रोह भी कह की कला पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला सकते हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है, के साथ मरण की कला पर भी विचार किया गया लेकिन जब मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन का है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार मरना प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं चाहिए यही महत्वपूर्ण नहीं है, वरन् किस प्रकार मरना रही, तब वह आत्म-साधना के अंतिम रूप के तौर पर चाहिए यह भी मूल्यवान है। मृत्यु की कला जीवन अगर शरीर छोड़ दे, तो वह उसका ही है। मैं स्वयं की कला से भी महत्वपूर्ण है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक व्यक्तिश: इस अधिकार का समर्थन करता हूँ।१३ जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना तो विद्यार्थी समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द के सूत्रकालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु कौसाम्बी और महात्मा गाँधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त परीक्षा का अवसर है। करने के अधिकार का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। हम जीवन की कमाई का अंतिम सौदा मृत्यु महात्माजी का कथन है कि 'जब मनुष्य पापाचार का के समय करते हैं। यहाँ चूके तो फिर पछताना होता वेग बलवत्तर हआ देखता है और आत्महत्या के बिना है और इसी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि जीवन अपने को पाप से नहीं बचा सकता, तब होने वाले पाप की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला अधिक मूल्यवान से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का अधिकार है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का अवसर है।'१४ कौसम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक ‘पार्श्वनाथ का ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी चातुर्याम धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु और उसकी भूमिका में पं. सुखलालजी ने ‘उन्होंने के समय जैसी भावना होती है, वैसी ही योनि जीव प्राप्त अपनी स्वेच्छामरण की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया करता है (१८/५-६)। जैन परंपरा में खन्धक मुनि की था' यह उद्धृत किया है।५ कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करने काका कालेकर स्वेच्छामरण को महत्वपूर्ण वाला महान साधक, जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन मानते हए जैन परंपरा के समान ही कहते हैं कि जब से अपने सहचारी पाँच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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