SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परंपरा के समान ही धार्मिक आत्म-हत्याओं को (२५/६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं मत्स्यपुराण अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे (१८६/३४/३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, संदर्भ अवश्य हैं, जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देहत्याग करते हैं। संयुक्त निकाय में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है, ऐसा माना वक्कलि कुलपुत्र, भिखु छन्न', द्वारा की गई आत्म- गया है। हत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हे अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत निर्दोष कह कर दोनों ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करते हए लिखा है कि यदि कोई गहस्थ असाध्य रोग करनेवाला बताया था । जापानी बौद्धों में तो आज भी से पीड़ित हो, जिसने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हों, हरीकरी की प्रथा मृत्युवरण की सूचक है। वह महाप्रस्थान हेतु अग्नि या जल में प्रवेश कर अथवा फिर भी जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा में पर्वत-शिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति दे मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर भी है। प्रथम सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। तो यह कि जैन परंपरा के विपरीत बौद्ध परंपरा में उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता है। कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीवन जीने की जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमद्भागवत के ११वें स्कन्ध का विरोध इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांछा के १८वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का नहीं है, तो फिर मरण के लिए उतनी आतुरता क्यों ? समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर हुआ है, वरन् इस प्रकार जहाँ बौद्ध परंपरा शस्त्रवध के द्वारा की गई व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी परंपरा आत्महत्या का समर्थन करती हैं, वहीं जैन परंपरा उसे में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालयअस्वीकार करती है। इस संदर्भ में बौद्ध परंपरा वैदिक यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख परंपरा के अधिक निकट है। उदाहरण है। डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि वैदिक परंपरा में मृत्युवरण - रामाणय एवं अन्य वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों सामान्यतया हिन्दु धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज महापाप माना गया है। पाराशरस्मृति (४/१/२) में सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख किया कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह ६०००० है। मैगस्थनीज ने भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वर्ष तक नरकवास करता है, लेकिन इनके अतिरिक्त प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयोग में हिन्दु धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक संदर्भ हैं, जो अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्राणान्त करने की प्रथा स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित्त तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परंपरा में के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/ मध्ययुग तक भी काफी प्रचलित थी। यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं, फिर भी वैदिक संन्यासियों ९०-९१), याज्ञवल्क्यस्मृति (३/२५३), गौतमस्मृति द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस (२३/१), वशिष्ठधर्मसूत्र (२२/२२, १३/१४) और की श्रद्धा का केन्द्र है। आपस्तम्बसूत्र (१/९/२५/१-३,६) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, हिन्दु धर्मशास्त्रों में भी ऐसे इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन और अनेक स्थल हैं, जहाँ महाभारत के अनुशासन पर्व बौद्ध परंपराओं में वरन् वैदिक परंपरा में भी मृत्युवरण महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy