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________________ राग-द्वेष आदि दूषित परिणाम का आत्मा में बहिरात्मा होकर अन्तरात्मा का हनन करता है। उत्पन्न नहीं होना निश्चय से अहिंसा है। इन्हीं ही राग- आत्मवध होने के पश्चात् अन्य जीवों का बंध हो भी द्वेष आदि दूषित परिणामों का उत्पन्न होना जिनागम में सकता है नहीं भी हो सकता है। संक्षेप से हिंसा कहा है। जिनागम का संक्षेप या सार अहिंसा के लिए सल्लेखना - यह है कि अप्रयत्न रूप (अयत्नाचार) से आचरण इयमेकैव समर्था धर्मत्वं मया समं नेतुम् । करना हिंसा है एवं प्रयत्न पूर्वक (विवेक एवं पवित्र सततमिति भावनीया, पश्चिम सल्लेखना भक्त्या ।। भाव) आचरण करना अहिंसा है। मुझे अपने धर्म तत्त्व को अपने साथ एकीकरण प्राणघात से ही यत्नाचारी हिंसक नहीं - करके पर-भव में ले जाने के लिए यह सल्लेखना ही युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमंतेरणापि। निरन्तर समर्थ है। इस प्रकार विचार करके भक्ति से न हि भवति जातु हिंसा, प्राणव्यपरोपणादेव ।।४५।। निष्कपट रूप से जीवन के अन्तिम समय में सल्लेखना जो प्रयत्न आचरण से युक्त है तथा रागादि की भावना भानी चाहिए। मरण के समय में शरीर एवं आवेश से रहित है, उससे हिंसा नहीं होती है। युक्त कषाय को क्षीण करना सल्लेखना है।।१७५ ।। आचरण से सहित मुनीश्वरों के रागादि भावों के आवेश सल्लेखना का पालन - के बिना कदाचित् प्राण व्यपरोपण होने पर भी मरणांतेऽवश्वयमहं विधिना सल्लेखना करिष्यामि । नहीं होती है। इति भावनया परिणतो, नागतमपि पालयेदमिदं शीलम् ।। अयत्नाचारी प्राणघात के बिना भी हिंसक - स्वकीय परिणाम से पूर्व जन्म में उपार्जित आयु, व्यस्थानावस्थायां, रागादीनां वश प्रवृत्तानाम्। इन्द्रिय. बल का विनाश कुछ कारण से होता है, उसको म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ मरण कहते हैं। मरण को ही यहाँ पर अंत कहा गया राग आदि परिणाम से वशीभूत जीव प्रमाद है। उस मरण के समय में शरीर, कषाय को क्षीण करना अवस्था में रहते हुए अवश्य हिंसक होता है, दूसरे जीव सल्लेखना कहते हैं। शरीर को क्षीण करना बाह्य मरें या नहीं मरें। आचार्य श्री ने इस प्रकरण में कहा कि सल्लेखना है। कषाय को क्षीण करना अभ्यन्तर राग आदि परिणाम से वशीभूत जीवों के तथा प्रमाद सल्लेखना है। मरण के अंत में अर्थात् तद्भव मरण। से सहित जीवों के आगे-आगे हिंसा दौड़ती रहती है। मैं शास्त्रोक्त विधि-विधान से निष्कपट रूप से सल्लेखना इसका रहस्य यह है कि वह अवश्यमेव हिंसक होता निश्चय से करूँगा। इसी प्रकार पूर्वोक्त प्रकार से भावना है अर्थात् त्रस-स्थावर जीवों के प्राणों का हनन करने से सहित पुरुष को भी आगामी काल संबंधी भी इस वाले या नहीं करने वाले भी प्रमादी जीव अवश्य ही शील का पालन होता है। जो ऐसी भावना भाता है, हिंसक होते हैं। उसकी सल्लेखना होती है।।१७८।। आत्मघाती दूसरों के प्राणघात के बिना भी हिंसक- सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं ? - यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्माप्रथममात्मनाऽऽत्मानम्। मरणेऽवश्यं भाविनि. कषाय सल्लेखना तनकरण मात्रे। पश्चाज्जायत् न वा हिसा प्राण्यतराणा तु ।।४७|रागादिमंतरेण, व्याप्रियमाणस्य नाऽऽत्मघाताडास्त ।। कषाय से युक्त जीव सर्वप्रथम स्व आत्म स्वरूप प्रश्न - स्वयमेव सल्लेखना करके प्राण त्याग की हिंसा करता है। पश्चात् अन्य जीवों की हिंसा हो करने से स्वकीय आत्मबन्ध होगा जो हिंसा है ?||१७७॥ या नहीं हो सकषाय जीव कषाय से वशीभूत होकर उत्तर - उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर आचार्य देते हैं महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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