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________________ भक्ति का फल 0 पण्डित चैनसुखदास न्यायतीर्थ जैनाचार्यों ने भक्ति को एक निष्काम कर्म माना 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' के कर्ता महाविद्वान है। यदि उसे लक्ष्य कर मनुष्य में फलासक्ति उत्पन्न हो कुमुदचन्द्र भी इस संबंध में यही बात कहते हैं - जाय तो भक्ति बिल्कुल व्यर्थ है। जैन शास्त्रों में निदान यद्यस्ति नाथ भवदंघ्रिसरोतहाणाम्, (फलाकांक्षा) को धार्मिक जीवन में एक प्रकार का भक्तेः फलं किमपि संतत संचितायाः। शल्य (कांटा) बतलाया गया है। भक्त के सामने सदा तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्यभूया:, मुक्ति का आदर्श उपस्थित रहता है। वह उससे भटकता स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेपि ।। नहीं है। यदि भटकता है तो उसे सच्चा भक्त नहीं कह हे शरण्य ! आपके चरण कमलों की सतत् सकते। भक्ति का सच्चा फल वह यही चाहता है कि संचिता भक्ति का यदि कोई फल हो तो वह यही होना जब तक मुक्ति की प्राप्ति न हो, तब तक प्रत्येक मानव जन्म में उसे भगवद्भक्ति मिलती रहे। इसी आशय को चाहिए कि इस जन्म और अगले जन्म में आप ही मेरे स्वामी हों, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा कोई भी शरण स्पष्ट करते हुए 'द्विसंधान काव्य' के कर्ता महाकवि नहीं हो सकता। धनञ्जय कहते हैं - इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्, किन्तु जैसा कि पहले कहा है, मनुष्य का चरम लक्ष्य मुक्ति है। इसलिए कोई भी भक्त जब तक मुक्ति वरं न याचं त्वमुपेक्षकोऽसि, नहीं मिले तब तक ही इस फलाकांक्षा का औचित्य छाया तरु संश्रयत् स्वत् स्यात्, समझता है। इसलिए भगवान की पूजा के अंत में जैन कश्छायया याचितयाऽऽमलोभः। मंदिरों में जो शांतिपाठ बोला जाता है, उसमें इस अभिप्राय अधास्ति दित्या यदिवोपरोधः, त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति-बुद्धिं, को अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है - करिष्यते देव तथा कृपां मे, तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वयेलीनम्, को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरी: ।। तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावत् यावनिर्वाणसंप्राप्तिः । हे देव. ! इस प्रकार आपकी स्तुति कर मैं आप ___हे भगवन् ! जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो से उसका कोई वर नहीं माँगता, क्योंकि किसी से भी कुछ तब तक तुम्हारे चरण मेरे हृदय में लीन रहें और मेरा माँगना तो एक प्रकार की दीनता है। सच तो यह है आप हृदय तुम्हारे चरणों में लीन रहे। इन उद्धरणों से यह उपेक्षक (उदासीन) हैं। आप में न द्वेष है और न राग। अच्छी तरह समझा जा सकता है कि जैन भक्ति का राग बिना कोई किसी की आकांक्षा परी करने के लिए उद्देश्य परमात्मतत्त्व की ओर बढ़ना है। किसी भी प्रकार कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? तीसरी बात यह है कि छाया का लौकिक स्वार्थ उसका लक्ष्य नहीं है। जिसके जीवन वाले वक्ष के नीचे बैठकर फिर उस वक्ष से छाया की में भक्ति की महत्ता अकित हो जाती है, उसकी दुनिया याचना करना तो बिल्कल व्यर्थ है. क्योंकि वक्ष के नीचे के क्षणभंगुर पदार्थों में आस्था नहीं होती और न उसके बैठने वाले को तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। मन में किसी प्रकार के वैयक्तिक स्वार्थ की ही आकांक्षा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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