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________________ सर्वथा उस घड़े का कर्ता नहीं कह सकते। यदि वह उसका कर्त्ता होता तो पानी भरते समय भी उसकी जरूरत पड़ती, कि भाई उस कुम्हार को बुलाओ बिना उसके पानी नहीं भर सकते। मगर आप जानते हैं कि ऐसा नहीं होता है । इसलिए ये जो कहा जाता है कि किसी ने इस सृष्टि को बनाया है वही इस सृष्टि को चलाता है, उसके बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता है। ये सिद्धांत इस कथन को बेबुनियाद कर देते हैं। फिर इस संसार में एक जीव सुखी है और दूसरा दुखी क्यों है ? उसने एक को सुखी और दूसरा दुखी क्यों बनाया? एक को काला और दूसरे को गोरा क्यों बनाया? एक That रोगी और दूसरे को निरोगी क्यों बनाया? इस तरह से ‘इन सबको ईश्वर ने बनाया है' ये जो कल्पना है, ये कल्पना गलत है। हमारे यहाँ प्रत्येक की स्वतंत्र सत्ता है । ये जो छह द्रव्य हैं ये किसी के आधार पर नहीं हैं। अपने आधार पर ये छहों द्रव्य हैं। व्यवहार से कहते हैं कि ये एक दूसरे के आधार पर हैं। पर निश्चय से ये अपने आधार पर हैं। जैसे आपको भूख लगती है तो आपको ही भोजन करना होगा तभी आपकी भूख मिट सकती है। ये नहीं कि भूख आपको लगी है और भोजन कोई दूसरा कर ले तो आपका पेट भर जायेगा । इसी प्रकार से इस पृथ्वी मंडल के छहों द्रव्य अपने आधाराधार हैं। आकाश अपने में आधाराधार है, जीव अपने में आधाराधार है। स्वतंत्र सत्ता त्रिकाल हमारे जीव के अन्दर है - ये मानना पड़ेगा। जब तक ये नहीं मानेंगे तब तक अध्यात्म में प्रवेश नहीं होता । I वेद्य-वेदक भाव- आत्मा अपने सुख-दुख का कर्ता-धर्ता, अनुभवकर्ता है। पर ये याद रखना कि वह अपने शुद्ध भाव का ही कर्ता-धर्ता है-ये व्यवहार से कहते हैं आप से कोई पूछता है कि क्या आप दुखी हैं ? तो आप कहते हैं कि नहीं, मैं दुखी नहीं हूँ। व्यवहार से आप दुखी हो भी सकते हैं परंतु निश्चय से आप कभी दुखी हो ही नहीं सकते । Jain Education International क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही है कि वह कभी दुखी हो ही नहीं सकता। पानी अग्नि के संपर्क में आने से गर्म हो जाता है और जब अग्नि के संपर्क से बाहर आ जाता है तो फिर से अपने मूल स्वभाव में आ जाता है। यानी शीतल हो जाता है। आप किसी बात को लेकर अचानक क्रोधित हो जाते हैं, मगर थोड़ी देर के बाद फिर अपने शांत स्वभाव में आ जाते हैं। तो आतमा अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। अनंतानंत पर्याय को यह आत्मा पी चुका है, भोग चुका है, अब कोई पर्याय बाकी नहीं है। सिर्फ एक सिद्ध पर्याय भोगना बाकी है बस ! महानुभावो ! सिद्धों के आत्मा में अनंत पदार्थ, सम्पूर्ण द्रव्य, गुण, पर्याय झलकते हैं। आप सब बड़े भाग्यशाली हैं, एक आदमी कुँआ खुदवाता है तो हजारों आदमी पानी पीते हैं। एक आदमी अस्पताल बनाता है तो हजारों लोगों का उपचार होता है, हजारों लोग स्वास्थ्य लाभ लेते हैं। एक आदमी मंदिर बनवाता है तो हजारों लोग दर्शन करते हैं । सिद्ध भगवान् की जो प्राकृत पूजा है, उसे जब संगीत में सुनोगे तो गद्गदित हो जाओगे । और प्रतिनित्य उस पूजा को आप करोगे ऐसा मुझे विश्वास है। आप सबका कर्म क्षय हो, दुःख क्षय हो, इन शब्दों के साथ मैं आप सबको बहुत - बहुत आशीर्वाद और धन्यवाद देता हूँ । • तीन प्रकार के प्रश्नकर्ता होते हैं, कल्याण पहली प्रवृत्ति वालों का ही हाता है :१. जिज्ञासु प्रवृत्ति के प्रश्नकर्ता । २. सभी पूछ रहे हैं इसलिए हम भी पूछ लेते हैं, इस प्रवृत्ति के प्रश्नकर्ता । ३. स्वयं की विद्वता को सिद्ध करने एवं दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति वाले प्रश्नकर्ता । महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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