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________________ लेकर पूर्णता को प्राप्त होने के काल तक पाया जाने २. व्यवहारसम्यग्दर्शन वास्तव में सम्यग्दर्शन वाला व्यवहार रत्नत्रय है। यद्यपि व्यवहार रत्नत्रय से ही नहीं है। तुरंत मोक्ष प्राप्त नहीं होता है तथापि व्यवहार रत्नत्रय ३. शुभराग रूप देशव्रत अथवा महाव्रत धर्म से निश्चय रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय से तुरंत मोक्ष नहीं है। इनको धर्म मानना मिथ्यात्व है। प्राप्त हो जाता है। इसलिए व्यवहार रत्नत्रय भी मोक्ष आगम में व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानके साक्षात् कारण का कारण होने से मोक्ष का परम्परा चारित्र का विश्लेषण किया गया है। निश्चय रत्नत्रय कारण कहा जाना चाहिए। का छहढालाकार ने निम्न प्रकार वर्णन किया। व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को सराग परद्रव्यन” भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान- आपरूप को जानपनों सो सम्यग्ज्ञान कला है। चारित्र को वीतराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी कहते आपरूप में लीन रहे थिर सम्यकचारित्र सोई। हैं । रत्नत्रय की अपूर्ण दशा में आत्मा में संज्वलनजनित, अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिए हेतु नियत को होई।। प्रत्याख्यानावरणजनित अथवा अप्रत्याख्यानावरण परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मतत्त्व के प्रति रुचि जनित रागभाव रहता है, अत: उस समय रागभाव होना निश्चय सम्यग्दर्शन है। अपने आत्मा को जानना सहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रहते हैं। रत्नत्रय की निश्चय सम्यक् चारित्र है, उक्त निश्चय रत्नत्रय की पर्णता होने पर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त हो जाती है अतः । प्राप्ति स्वयं की आत्मा में पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त नहीं उस समय का सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वीतराग नाम होने तक नहीं हो सकती। कुन्दकुन्द के आध्यात्मिक पा जाता है। रत्नत्रय के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार आचार्य श्री जयसेन स्वामी तीन भेद, व्यवहार या सराग दशा में ही अनुभव में आते ने कहा है कि वीतराग अथवा निश्चय सम्यग्दर्शन हैं, किंतु सम्पूर्ण कषायों के अभाव से उत्पन्न वीतराग वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। अर्थात् वीतराग चारित्र के धारक मुनि महाराज को ही वीतराग (निश्चय) दशा प्राप्त हो जाने पर भेद का विकल्प ही अनुभव में सम्यग्दर्शन होता है। आगे छहढालाकार ने व्यवहार नहीं रहता। अत: वीतराग या निश्चय रत्नत्रय को अभेद सम्यक्त्व का, जो निश्चय सम्यक्त्व का कारण है, रत्नत्रय एवं सराग या व्यवहार रत्नत्रय को भेद रत्नत्रय स्वरूप बताते हुए बताया है कि सात तत्त्वों के समीचीन भी कहते हैं। स्वरूप की श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है। व्यवहार इस प्रकार जिनागम में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्यग्दर्शन के साथ अनंतानुबंधी कषाय के अनुदय के रूप एक ही मोक्षमार्ग का अनेकांत का सहारा लेकर कारण होनेवाले स्थूल सदाचरण के रूप में सम्यक्त्वाव्यवहार-निश्चय, सराग-वीतराग, भेद-अभेद, कारण- चरण भी प्रकट होता है। अप्रत्याख्यानावरण एवं कार्य के रूप में दो रूप वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यानावरण कषायों के क्षयोपशम से क्रमश: पाँच पापों के सर्वथा त्यागरूप महाव्रत, गुप्ति, समिति आदि कुछ स्वाध्याय शील सज्जन जिनागम के प्रकट होते हैं, जिन्हें व्यवहार सम्यक्त्वचारित्र कहा उपर्युक्त अनेकांतात्मक उल्लेखों की अनदेखी करते जाता है। व्यवहार रत्नत्रय की चरमदशा में वीतराग हुए अपनी एकांत धारणाओं को पुष्ट करते हुए निम्न अवस्था में, निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है जो शीघ्र धारणाएँ रखते हैं - मोक्ष को प्राप्त करा देता है। १. निश्चय सम्यग्दर्शन पहले होता है, व्यवहार सम्यग्दर्शन बाद में होता है। - जिनभाषित से साभार महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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