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________________ उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में कहा है – 'सम्यक्दर्शन- आकर आध्यात्मिक दृष्टि एवं सामाजिक दृष्टि परस्पर ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।' पूरक हो जाती है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जो कर्म सिद्धान्त में समाज एवं न्याय व्यवस्था पर कर्म करता है वही उसका फल भोगता है। जो जैसा विचार करने के पूर्व पुण्य एवं पाप प्रकृतियों के बंध के कर्म करता है उसके अनुसार वैसा ही कर्मफल भोगता कारण पर दृष्टि डालना समीचीन होगा। जैन दर्शन के है। इसी कारण सभी जीवों में आत्म शक्ति होते हुए अनुसार पुण्य प्रकृतियाँ बंधने के नव प्रकार बताए गये भी वे कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन की नाना हैं- १. अन्न पुण्य – अन्नदान, २. पान पुण्य - पीने गतियों, योनियों, स्थितियों में भिन्नरूप में परिभ्रमित हैं। की वस्तु देने से, ३. वत्थपुण्य - वस्त्र दान, ४. लयन यह कर्म का सामाजिक संदर्भ है। सामाजिक स्तर पर पुण्य - स्थान देने से, ५. शयन पुण्य - शयन स्थान कर्मवाद व्यक्ति के पुरुषार्थ को जाग्रत करता है। यह सुविधा बिछौने आदि, ६. मन पुण्य - मन में शुभ उसे सही मायने में सामाजिक एवं मानवीय बनने की विचारों से, ७. वचन पुण्य - शुभ वचन से, ८. काया प्रेरणा प्रदान करता है। उसमें नैतिकता के संस्कारों को पुण्य – शरीर से शुभ अनुकूल मनोज्ञ करने से, उपजाता है, व्यक्ति को यह विश्वास दिलाता है कि ९. नमस्कार पुण्य - बड़ों को गुरुजनों को, माताअच्छे कर्म का फल अच्छा होता है तथा बुरे कर्म का पिता आदि को नमस्कार करने से।। फल बुरा होता है। राग-द्वेष वाला पापकर्मी जीव संसार शुभ पुण्य कर्मों के फल निम्न प्रकार से बताए में उसी प्रकार पीड़ित होता है जैसे विषम मार्ग पर गए हैं – १. परोपकार से अनायास लक्ष्मी प्राप्त होती चलता हुआ अन्धा व्यक्ति। प्राणी जैसे कर्म करते हैं है। २. सविधा दान से मेधावी होता है। ३. रोगी वृद्ध उनका फल उन्हें उन्हीं के कमों द्वारा स्वतः मिल जाता असक्त जनों की सेवा से शरीर निरोगी व स्वस्थ होता है। कर्म के फल भोग के लिये कर्म और उसके करने है। ४. देव-गुरु-धर्म की विशिष्ट भक्ति से जीव तीर्थंकर वाले के अतिरिक्त किसी तीसरी शक्ति की आवश्यकता प्रकृति का बंध कर सकता है। ५. जीव दया से सुख नहीं है। समान स्थितियों में भी दो व्यक्तियों की भिन्न साधन मिलते हैं। ६. वीतराग संयम से मोक्ष प्राप्ति होती मानसिक प्रतिक्रियाएँ कर्म भेद को स्पष्ट करती हैं। है। इसके विपरीत पाप प्रकृति बांधने के १८ हेतु बताए __ कर्म वर्गणा के परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं, गए हैं - १. प्राणातिपात - जीव हिंसा २. मृषावाद हमें कर्म करने ही पडेंगे। शरीर है तो क्रिया भी होगी। - असत्य झूठ ३. अदत्तादान – चोरी ४. मैथुन - क्रिया होगी तो कर्म वर्गणा के परमाणु आत्म प्रदेशों की अब्रह्म ५. परिग्रह ६. क्रोध ७. मान ८. माया ९. लोभ ओर आकृष्ट होंगे ही। तो क्या हम क्रिया करना बंद १०. राग ११. द्वेष १२. कलह १३. अभ्यास्थान (झूठा कर दें ? क्या ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन चल कलंक) १४. पैशुन्य (चुगली) १५. परपरिवाद - सकता है? महावीर ने इन जिज्ञासाओं का समाधान दूसरों की निंदा/अनुचित टीका टिप्पणी १६. रतिकिया, उन्होंने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के अरति १७. माया मृषावाद १८. मिथ्यादर्शन शल्य। चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया, उन्होंने लोक अशुभ कर्म व उनके फल निम्न प्रकार बताए के जीव मात्र के उद्धार का वैज्ञानिक मार्ग खोज निकाला। गये हैं -१. हरे वक्षों के काटने-कटाने से व पशु हिंसा उन्होंने संसार में प्रणियों के प्रति आत्मतुल्यता भाव की से संतान नहीं होती है। २. गर्भ गिराने से बांझपन होता जागति का उपदेश दिया। शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों है। ३. कन्द मल या कच्चे फलों को तोडने से गर्भ में पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया। यहाँ ही मृत्यु होती है या अल्पायु होती है। ४. मधुमक्खियों महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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