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________________ में आत्मा अपने किये का अपने आप फल भोगता है। कर्म बन्धनों से मुक्ति के लिये आगम कहते हैं कर्म परमाणु सहकारी या सचेतक का कार्य करते हैं। - इहलोक, परलोक, पूजा श्लाघा आदि के लिये धर्म विष और अमृत, पथ्य और अपथ्य का भोजन को कुछ मत करो, आत्मशुद्धि के लिये करो। यही बात भी ज्ञान नहीं होता; फिर भी जीव का संयोग पा उनकी वेदान्तवादियों ने कही है 'मोक्षार्थी को काम्य और वैसी परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये' क्योंकि आत्मखानेवाले को इष्ट या अनिष्ट फल मिलता है। विज्ञान साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार-भ्रमण के क्षेत्र में परमाणु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन हेतु है। भगवान महावीर ने कहा है - 'पुण्य और पाप के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदान इन दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है। जीव शुभ और शक्ति के बारे में कोई संदेह नहीं रहता। अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है।' कर्म का उदय दो प्रकार से होता है - १. प्राप्त गीता भी यही कहती है - 'बुद्धिमान सुकृत और दुष्कृत काल कर्म का उदय - बंधी हुई स्थिति के अनुसार दोनों को छोड़ देता है।' उचित समय पर स्वतः कर्म उदय में आते हैं। २. अप्राप्त अयोगी अवस्था से पूर्व सत्प्रवृत्ति के साथ काल कर्म का उदय - काल प्राप्त होने से पूर्व ही पुण्यबन्ध अनिवार्य रूप से होता है। फिर भी पुण्य की परिस्थिति या प्रयत्न विशेष के द्वारा कर्म का उदय में इच्छा से कोई भी सत्प्रवृति नहीं करनी चाहिये । प्रत्येक आना । बन्ध और उदय के अन्तर का काल अबाधा सत्प्रवृत्ति का लक्ष्य आत्म विकास होना चाहिये । काल है। कर्म का परिपाक और उदय अपने आप भी भारतीय दर्शनों का यही चरम लक्ष्य है। लौकिक होता है और दूसरों के द्वारा भी-सहेतुक भी होता है अभ्युदय धर्म का आनुषंगिक फल है जो धर्म के साथ और निर्हेतुक भी। तीव्र परिपाक से स्वतः क्रोध में होना अपने आप फलने वाला है। यह शाश्वत चरम लक्ष्य निर्हेतुक। नहीं है। पुण्य-पाप - मन-वचन और काय की जैनदर्शन में धर्म और पुण्य दो पृथक् तत्त्व हैं। शुभाशुभ क्रिया ही पुण्य-पाप है। पुण्य-पाप दोनों शाब्दिक दृष्टि से पुण्य शब्द धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त विजातीय तत्त्व हैं। अत: दोनों आत्मा की परतंत्रता के होता है; किन्तु तत्त्वमीमांसा में ये कभी एक नहीं होते। हेतु हैं। जैनाचार्यों ने पुण्य को सोने की और पाप को धर्म आत्मा की राग-द्वेष हीन परिणति है और पुण्य लोहे की बेडी से तुलना की है। स्वतंत्रता के इच्छुक शुभकर्ममय पुद्गल है। दूसरे शब्दों में धर्म आत्मा की मुमुक्षु के लिये ये दोनों हेय हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रय पर्याय है और पुण्य पुद्गल की पर्याय है। धर्म आत्महै। जो व्यक्ति इस तत्त्व को नहीं जानता वही पुण्य को शुद्धि का साधन है और पुण्य आत्मा के लिये बन्धन है। उपादेय और पाप को हेय मानता है। निश्चय दृष्टि से आत्मा स्वतंत्र है या कर्म के आधीन? ये दोनों हेय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप कर्म की मुख्य दो अवस्थाएँ हैं - बन्ध और को आकर्षण करने वाली विचारधारा को परसमय उदय। दूसरे शब्दों में ग्रहण और फल । जीव, कर्म ग्रहण अर्थात् जैन सिद्धान्त से परे माना है। पुण्य काम्य नहीं करने में स्वतन्त्र है और उसका फल भोगने में परतन्त्र । है। आचार्य योगीन्दु के शब्दों में ‘वह पुण्य किस काम जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतंत्र का जो राज्य देकर जीव को दुःख परम्परा की ओर है, इच्छानुसार चढ़ता है। प्रमादवश गिर जाए तो वह ढ़केल दे। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति गिरने में स्वतंत्र नहीं है। विष खाने में स्वतंत्र है और मर जाए यह अच्छा है; किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख - वमुख उसका परिणाम भोगने में परतंत्र । एक रोगी व्यक्ति भी होकर पुण्य चाहे, वह अच्छा नहीं।' महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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