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________________ कर्मों का शुभफल उस अवस्था में होता है, जब वे आसक्ति रहित हों । लोक कल्याणकारी हों और धर्मपालन के निमित्त हों । राष्ट्र रक्षार्थ युद्ध । गीता, उपनिषद् आदि में अच्छे-बुरे को जैसे 'कर्म' कहा है; वैसे जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं है। जैन दर्शनानुसार कर्म शब्द आत्मा पर लगे हुये सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। आत्मा की प्रत्येक सूक्ष्म और स्थूल मानसिक, वाचिक और प्रवृत्ति के द्वारा उसका आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण (आत्मीकरण या जीव और कर्म परमाणुओं का एकीभाव) होता है । कर्म के हेतुओं को भावकर्म और कर्म-पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहा जाता है। इनमें निमित्त - नैमित्तिक भाव है। भावकर्म से द्रव्यकर्म का संग्रह और द्रव्यकर्म के उदय से भावकर्म तीव्र होता है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध बन्ध की अपेक्षा से जीव और पुद्गल अभिन्न / एकमेक हैं। लक्षण की दृष्टि से वे दोनों भिन्न हैं । जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन । जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त है । इन्द्रिय के विषय आदि मूर्त हैं । उनको भोगने वाली इन्द्रियाँ मूर्त हैं। उनसे होने वाला सुखदु:ख मूर्त हैं। आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्म से सम्बन्ध कैसे होता है ? - प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। वह अनादिकाल से ही बद्ध और विकारी है। कर्मबद्ध आत्माएँ कथञ्चित् (किसी एक अपेक्षा से) मूर्त है अर्थात् निश्चय दृष्टि से अमूर्त होते हुये भी वे संसारदशा में मूर्त होती हैं। Jain Education International जीव प्रकार के हैं - रूपी और अरूपी । मुक्त जीव अरूपी है और संसारी जीव रूपी । निश्चय दृष्टि से जीव अमूर्त और अरूपी ही है। कर्म मुक्त आत्मा फिर कभी कर्म का बन्ध नहीं होता। कर्मबद्ध आत्मा केही कर्म बंधते हैं। कर्म और आत्मा का अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। कर्म सम्बन्ध के अनुकूल आत्मा की परिणति ही बन्ध का हेतु है। उसके कारण हैं प्रमाद और योग । शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग द्वारा कर्म का बन्ध करता है। क्रोध, मान, माया और लोभ भी बन्ध के कारण हैं। 'पंचास्तिकाय' गाथा १२८, १२९ एवं १३० में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं (संस्कृत छाया-प्राकृत से) - यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामत्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ॥ गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा ॥ जायते जीवस्यैवं भाव: संसार चक्रवाले। इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा ॥ • यह जो जीव संसार में स्थित है, उसके निरन्तर राग-द्वेष परिणाम होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं । इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है। विषय ग्रहण से इष्ट विषयों से राग और अनिष्ट विषयों से द्वेष करता है । इस प्रकार संसार रूपी चक्र में पडे हुए जीव के परिणामों से कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से राग-द्वेष रूप भाव होते रहते हैं । यह चक्र अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है और भव्यजीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है। इससे स्पष्ट होता है कि संसारी जीव अनादिकाल से मूर्तिक कर्मों से बंधा हुआ है। इसलिये एक तरह से वह भी मूर्तिक हो रहा है। जैन दर्शन में कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीव से संबद्ध कर्म पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहते हैं और द्रव्यकर्म के प्रभाव से होनेवाले जीव के राग-द्वेष रूप भावों को भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्म का कारण है। न बिना द्रव्यकर्म के भावकर्म होते हैं और न बिना भावकर्म के द्रव्यकर्म होते हैं। आत्मा और कर्म का संयोग बन्ध कहलाता है जो चार प्रकार का है। प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/47 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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