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________________ भस्मक रोगवत् बढे निरन्तर अतः आप वर दो मुझको । प्रवेश करें मुझ में पदार्थ सब, अन्तर्ज्ञेयता हो मुझको || २१ || २५ दर्शन ज्ञान चरित सम्यग् का जो आलम्बन ले चलते हैं। प्रभु ज्ञान सुधारस पीते आत्मशुद्ध कर लेते हैं । हे प्रभु मुझ अमृत को वह परमार्थ तत्त्व है प्राप्त हुआ । सद्ज्ञान क्रिया कर आलम्बन बनूँ शुद्ध व्रत आज लिया ||२३|| २५ प्रभु पमाद से हीन बना कुछ ज्ञान प्राप्त करके मैं भी । जान सका आनन्द ज्ञान का अतः ज्ञान रस आप्लावित ॥ स्नान कर रहा प्रतिक्षण मैं तो ज्ञानानन्दी सागर में । नमक घुले पानी में जिस विधि, मैं अमृत घुला ज्ञानरस में || २४ ॥ २५ मैंने इस महान ग्रन्थ का हिन्दी में पद्यानुवाद किया है, मुझ में भी आचार्य प्रभु जैसे भाव उमड़े वे निम्न प्रकार हैं. — Jain Education International जिसको पीकर अज्ञान नशे वह जिनागम अमृत का प्याला है मैं नमन करूँ जिनागम को जो अमर बनाने वाला है । जिनागम ने ध्यान विधि बतलायी जो चंचल मन का ताला है। वह ध्यान विधि मैं प्राप्त करूँ का करती ज्ञान उजाला है । वह स्वानुभूति को देती है जो निरविकल्प रस वाली है । उस ही ध्यान से प्रभु दर्श मिले वह अमृत रस का प्याला है । प्रभु नमन करे सद्गुरु अमृत को प्रभु दर्श कराने वाला है । जिससे आत्मा मन शुद्ध बने उस पथ पर ले जाने वाला है ।। ए २८, जनता कालोनी, आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रय तेजसा सततमेव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र) के तेज से निरन्तर अपनी आत्मा को प्रभावना युक्त करना चाहिए और दान, तप, जिन - 1 - पूजा, विद्या और अतिशय से जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए । - पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥३०॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/39 For Private & Personal Use Only जयपुर www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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