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________________ भाभाति भात्यपि च भाति न भात्यभाति । सा चाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दति त्वाम ॥४॥१ __ अर्थात् यहाँ ज्ञानगुण, आत्मा का ज्ञायक स्वभाव और ज्ञप्ति क्रिया का विश्लेषण करते हुए आचार्य कहते हैं कि ज्ञान आत्मा की वस्तु है। अत: आत्मा में रहते हुए शोभा को प्राप्त होता है वह आत्मा के अतिरिक्त अन्य स्थान में न रहता है अतः शोभित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। ज्ञप्ति क्रिया भी जहाँ ज्ञान परिणमन होता है वहाँ ही रहती है और इस ज्ञप्ति क्रिया के कारण ही आत्मा ज्ञान गुण का स्वामी या ज्ञायक कहलाता है । हे अभिनन्दन नाथ ! वह ज्ञान दीप्ति आप में रहकर अभिनन्दन करती है। चौबीसवीं स्तुति में - आत्मीकृता चलितचित् परिणाम मात्र। विश्वोदय प्रलय पालन कर्तृकत ।। नो कर्तृ बोधूनाथ बोदपि बोध मात्र । तद् वर्धमान तव धाम किमद्भुते न ॥२४।।१ अर्थात् तुम अविनाशी, तुम चित्स्वरूप ज्योतिर्मय हो। अविचलित चित्त तुम सत्स्वरूप स्वाभाविक हो अरु ज्ञप्ति क्रिया के कर्ता हो। कर्ता भी नहीं, बोद्धा भी नहीं इक उदित ज्ञानमय ज्योति हो। हे वर्धमान ! सद्ज्ञान धाम आश्चर्यकारी अति अद्भुत हो। सर्ग ३ में सामायिक के लिये मोहत्याग को आवश्यक बतलाते हुए आचार्य कहते हैं - हे प्रभु मोह व्यूह छोड़ जो सकल पाप का त्याग करें। दर्शन ज्ञान की दृढता से निज आत्मा में जो लीन रहें।। वे निश्चय सामायिक करते सामायिक वे कहलाते। हे प्रभु आप भी बने सामायिक स्वात्मद्रव्य लीनता से ॥२॥३ अर्थात् मोह त्याग से सामायिक और सामायिक से आत्मलीनता होती है, संयम से शुद्धि और शुद्धि से मोह त्याग होता है। श्रेणी प्रवेश समय में विशिष्ट शुद्ध परिणाम होते हैं - परिणामों की विशिष्ट शुद्धता श्रेणी प्रवेश समय में थी। अध:प्रवृत्तकरण तब प्रकटा प्रभु श्रेणी आरूढ हुए ।। प्रबल पराक्रम धारी हे प्रभु मोहशत्रु का ध्वंश किया। मोहशत्रु के क्रोधादि सैनिकों को भी तुमने भगा दिया ।३।।१२ पदार्थ में पर्यायें क्रमवर्ती तथा गुण अक्रम होते हैं - पर्यायें क्रमवर्ती गुण अक्रम पदार्थ में होते हैं। आप प्रभु इन दो भावों को धारण करके रहते हैं। अनित्य आप पर्यायों से गुण से अनित्यता नहीं कभी। हो नित्य आप या नित्य नहीं एकान्तवादिता सत्य नहीं॥४॥१८ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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