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________________ ऐसा क्यों? क्या छद्मस्थ प्रणीत धर्मों में 'जैसा करो वैसा भरो' का केवली प्रणीत उपदेश उनके ही अपने बल पर नहीं समझ लिया गया है ? नहीं। उन्होंने करणी का फल देने वाले के रूप में ईश्वर को किसी न किसी रूप में स्वीकार कर उसकी भक्ति द्वारा अनिष्ट से बचने और इष्ट फल को प्राप्त करने का मानव में विश्वास पैदा किया है। जबकि इस प्रकार का कोई नियन्ता, विधाता प्रत्यक्ष या अनुमान किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता । तथा, केवली गम्य कर्मबन्ध और उदय के रूप में वह सत्य सत्यरूप से समझ में आ जाता है एवं अनिष्ट के परिहार तथा इष्ट की प्राप्ति हेतु अन्य किसी शक्ति विशेष के आगे गिड़गिड़ाये बिना अपने भाव जगत में सुधारकर उनके संक्रमण, निर्जरा, उपशमन आदि द्वारों के ज्ञात हो जाने से स्वालम्बन की / व्यक्ति स्वातन्त्र्य की प्रेरणा मिलती है, पराश्रय की दुर्बलता एवं पराधीनता का भी मोहताज नहीं रहता, पुण्योदय ही उसकी छाया बन चारों ओर अनुकूलता उत्पन्न करता है, उसका जयनाद गुँजाता है। पुनः, क्या आज मनोविज्ञानी, परामनोविज्ञानी ने अपने ही छद्मस्थ ज्ञान के बल से अवचेतन स्तर पर छिपी ज्ञान, बल आदि की गहराईयों को खोज नहीं लिया है, क्या उन्होंने यह नहीं जान लिया है कि चेतन स्तर पर 'पहाड़' की चोटी हमें दिख रही है, पर पहाड़' उतना ही नहीं है, पानी के नीचे पूरा 'पहाड़' है? इतना तो जान लिया है, पर फिर भी वे बहिर्मुखी बहिरात्मा ही बने हुए हैं। चेतन-अवचेतन स्तर का द्वैत मिटकर निर्विकल्प अद्वैत, परमात्म दशा का उनका लक्ष्य न बना होने से, द्वैतरूप भयानक संसार दशा से बाहर निकल उत्तम सुख रूप मुक्त परमात्म दशा को प्राप्त करने की लगन / ललक बिना वे अन्तरात्मा नहीं कहे जा सकते, उन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं है वे मिथ्यादृष्टि ही हैं। हाँ, वे अन्तरात्मा रूप को प्राप्त करने के निकट अवश्य हो गये हैं, यदि उन्हें केवली के बताये कर्मावरण से घिरे परमात्म सूर्य का परिचय / बोध प्राप्त हो जाये । Jain Education International आज भौतिकी के क्षेत्र में मोबाइल, इन्टरनेट और कम्प्यूटर की शोध खोज ने, निर्माण ने क्या हमारे मूल स्वरूप को खोज निकाला है, हमारे परमात्म स्वरूप की झलक दिखायी है? नहीं। उसके यंत्रों द्वारा जीवात्मा के देहान्तर गमन के प्रमाणित हो जाने पर भी, नहीं। मोबाईल, कम्प्यूटर आदि में सूचना बाहर से भरी जाती है । अतः या तो नैयायिकों की भाँति देह रहित जीवात्मा को भौतिक विज्ञानी जड़ मानेंगे और ज्ञान को मन, इन्द्रिय मात्र का कार्य अथवा सांख्य मत वालों की भाँति जीवात्मा को मात्र चेतन कहेंगे और पदार्थ ज्ञानको प्रकृतिका / जड़ जगत का कार्य बतायेंगे । अंग्रेज दार्शनिक लाँक ने बच्चे को खाली स्लेट (Tabula rasa) माना तथा कहा वह सब संस्कार बाहर से ग्रहण करता है। यूनानी दार्शनिक सुकरात ने बिना सिखाये बच्चे के स्तन पान के ज्ञान को पूर्वजन्म का संस्कार कहा । वह स्वयं अपने प्रश्नों के हल प्राप्त करने को अपने अन्तर में झाँका करता था और उत्तर प्राप्त कर संतुष्ट होता था, पर देह रहित रूप में जीवात्मा का क्या स्वरूप है, इसका उसे भी अहसास नहीं था। उस अहसास के होने, दृढ़ता से होने हेतु आवश्यक है परमात्म पद को प्राप्त हुए का आगम, उसका दिशा निर्देश । और तब, पूर्वी पश्चिमी दार्शनिकों के चिन्तन, मनोविज्ञान परामनोविज्ञान भौतिक विज्ञान आदि के शोध-खोज आधे-अधूरेपने के, विपर्यास के दोष से मुक्त हो मानव के चतुर्गति भ्रमण की दारुणता से मुक्ति में, स्व-पर कल्याण के ठोस धरातल पर स्थित होने में सहयोगी बन सकते हैं। ऐसा हो जाने पर, केवल पारलौकिक प्रकाश की प्राप्ति से ही मानव गद्गद् नहीं होगा, उसका लौकिक पक्ष भी सुहावना, सुन्दर हो जायेगा, जो केवलज्ञानी जनों द्वारा प्रदत्त पारलौकिक प्रकाश के अभाव में परस्पर धार्मिक विद्वेष एवं आरंभपरिग्रह के पिशाचों की गिरफ्त में नारकीय बन रहा है। D अजबघर के पीछे, किशनपोल बाजार, जयपुर ३ (राज.) महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/25 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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