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________________ में से शक्तिरूप शुद्धजीवत्व - पारिणामिक भाव शुद्धद्रव्यार्थिकनय से निरावरण है। उसकी संज्ञा शुद्धपारिणामिक है। वह बन्ध और मोक्ष पर्यायरूप परिणति से रहित है। और जो दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व हैं, वे पर्यायार्थिक नयाश्रित होने से अशुद्ध पारिणामिक भाव कहलाते हैं। इन तीनों में से भव्यत्व पारिणामिक भाव को ढाँकनेवाला पर्यायार्थिकनय से जीव के सम्यक्त्व आदि गुणों का घातक मोहादि कर्म हैं । जब कालादि लब्धिवश भव्यत्व शक्ति की व्यक्ति होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव लक्षणवाले निज परमात्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् अनुरण रूप पर्याय से परिणमन करता है। इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक अभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि कहते हैं। इस तरह आगम और अध्यात्म में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का क्रमादि भिन्न नहीं है। जिसे करणानुयोग चरणानुयोग में औपशमिक आदि नामों से कहते हैं, उसे ही अध्यात्म में शुद्धोपयोग शब्द से कहते हैं । अतः अध्यात्म में अविरत सम्यग्दृष्टि को भी शुद्धोपयोगी कहा है। शुद्धोपयोग शब्द का भी एक ही अर्थ नहीं है। शुद्ध-उपयोग तो यथार्थ में ऊपर के गुणस्थानों में होता है । किन्तु शुद्ध के लिये उपयोग और शुद्ध का उपयोग नीचे के गुणस्थानों में होता है। इसी शुद्धात्मा के प्रति अभिमुख परिणाम को भी शुद्धोपयोग कहा है। उसके बिना आगे के गुणस्थानों में शुद्ध - उपयोग होना संभव नहीं है । किसी भी अनुयोग में सम्यग्दर्शन का महत्व निर्विवाद है। सम्यग्दर्शन के बिना न ज्ञान सम्यक् होता है और न चारित्र। सम्यग्दर्शन के अभाव में दिगम्बर मुनि भी मुनि नहीं है, यह आगम का विधान है। सम्यग्दर्शन के होने पर ही अनन्त संसार सान्त होता है। छहढाला में जो कहा है मुनिव्रतधार अनन्तवार ग्रैवेयक उपजायो । पे निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो । तब प्रश्न होता है कि शुभोपयोग रूप धर्म है भाव कहते हैं और अध्यात्म की भाषा में शुद्धात्मा के या नहीं है? और उसे करना चाहिये या नहीं? Jain Education International यह सम्यग्दर्शन विहीन मुनिव्रत के लिये ही कहा है, क्योंकि द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि भी नौग्रैवेयक तक जा सकता है। अतः सम्यग्दर्शन विहीन चारित्र से भी स्वर्गसुख मिल सकता है, किन्तु मोक्षलाभ नहीं हो सकता। जो सांसारिक सुख की कामना से धर्माचरण करते हैं, वे धर्मात्मा कहलाने के पात्र नहीं हैं। किन्तु जो मोक्ष सुख की कामना से धर्म करते हैं, व सच्चे धर्मात्मा होते हैं और यथार्थ धर्म वही है जिससे कर्म कटते हैं । शुभोपयोग का धर्म के साथ सम्बन्ध प्रवचनसार गाथा ११ में कहा है जब यह धर्मपरिणत स्वभाव आत्मा शुद्धोपयोग रूप परिणमन करता है, तब निर्वाण सुख पाता है और यदि शुभोपयोगरूप परिणमन करता है, तब स्वर्गसुख प्राप्त करता है अर्थात् उसके पुण्यबन्ध होता है । यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि धर्मपरिणत आत्मा ही शुभोपयोगी होता है, अतः उसे अधर्मात्मा तो नहीं कह सकते। आचार्य अमृतचन्द्रजी ने इसकी उत्थानिका में शुद्धपरिणाम की तरह शुभपरिणाम का सम्बन्ध चारित्रपरिणाम के साथ बतलाया है - " अथ चारित्रपरिणाम सम्पर्क सम्भववतो: शुद्धशुभपरिणामयोः ।” किन्तु शुभोपयोगी के चारित्र को कथंचिद् विरुद्ध कार्यकारी कहा है । अत: जैसे शुद्धोपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय है उसी प्रकार अशुभपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय नहीं है । अत: उसे अशुभोपयोग की तरह सर्वथा हेय कहना उचित नहीं है और न सर्वथा उपादेय कहना ही उचित है; क्योंकि शुभोपयोग के रहते हुये निर्वाण लाभ सम्भव नहीं है। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/12 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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