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________________ अर्थात् जो चारित्र - परिणाम प्रधान हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप निश्चय मोक्षमार्ग से उदासीन रहकर या उसकी उपेक्षा करके केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारमार्ग को ही मोक्षमार्ग मानते हैं और स्व-समयरूप परमार्थ में व्यापार रहित हैं, वे चारित्र परिणाम का सार जो निश्चय शुद्ध आत्मा है, उसे नहीं जानते। इसी से समयसार की गाथा १२ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने एक गाथा उद्धृत की हैजइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइतित्थं, अण्णेण पुण तच्चं ॥ अर्थात् यदि जैनमत का प्रवर्तन चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहारनय बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु स्वरूप) का विनाश हो जायेगा । टीका में स्पष्ट किया है। गाथा १३ में संसारी जीव के अशुद्धय से चौदह मार्गणा और गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह भेद कहे हैं। और शुद्धनय से सब जीवों को शुद्ध कहा है। इसकी टीका में कहा है कि 'गुणजीवापज्जत्ती' आदि गाथा में जो बीस प्ररूपणा कही है, वह धवल, जयधवल और महाधवल नामक तीन सिद्धान्त ग्रन्थों के बीजपदभूत हैं । और गाथा के चतुर्थ पाद में जो 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' कहा है, जो कि शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, वह पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार नामक प्राभृतों का बीजपदभूत है। इसी के आगे कहा है कि अध्यात्म ग्रन्थ का बीजपदभूत, जो शुद्ध आत्म-स्वरूप कहा है, वही उपादेय है। इस तरह सिद्धान्त संसारी जीव की वर्तमान दशा का चित्रण करता है, जो शुद्ध जीव का स्वरूप न होने से व्यवहारनय का विषय है तथा हेय है। अध्यात्म इसके पश्चात् ही अमृतचन्द्रजी ने नीचे लिखा शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, जो निश्चय नय का स्वर्ण कलश कहा है विषय है तथा उपादेय है। उभयनयविरीधध्वंसिनी स्यात्पदा हेय और उपादेय जो संसारी जीव आत्महित करना चाहता है, उसे सबसे प्रथम हेय और उपादेय का बोध होना आवश्यक है। यदि कदाचित् उसने हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मान लिया, तो वह आत्महित नहीं कर सकता। इसी से आगम में तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। अतः मुमुक्षु को तत्त्वार्थ का विचार करके उसकी श्रद्धा करनी चाहिए। इस विषय में आगम या सिद्धान्त और अध्यात्म में भेद नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । समयसार में भूतार्थनय से जाने गये तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। मूल तत्त्व तो दो ही हैं - जीव और अजीव । इन्हीं के मिलन के फलस्वरूप आस्रव और बन्ध तत्त्व की निष्पत्ति हुई। वे ही दो संसार के कारण हैं। और संसार से छूटने के उपाय संवर, निर्जरा हैं, उनका फल मोक्ष है। इनमें पुण्य और पाप को मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि, महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/10 जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥ निश्चय और व्यवहार में परस्पर विरोध है, क्योंकि एक शुद्ध द्रव्य का निरूपक है और दूसरा अशुद्ध द्रव्य का । उस विरोध को दूर करनेवाले भगवान जिनेन्द्र के स्यात्पद से अंकित वचन हैं अर्थात् स्याद्वाद नय गर्भित द्वादशांग वाणी है । जो उसमें रमण करते हैं, प्रीतिपूर्वक उसका अभ्यास करते हैं, वे स्वयं मिथ्यात्व का वमन करके परमस्वरूप, अतिशय प्रकाशमान उस शुद्ध आत्मा का अवलोकन करते हैं, जो नया नहीं है तथा एकान्त नय के पक्ष से अखण्डित है। सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों का ही चरम लक्ष्य यही है, भिन्न नहीं है। किन्तु दोनों की कथन शैली अन्तर है। जहाँ तक हम जान सके, सिद्धान्त और अध्यात्म के इस अन्तर को ब्रह्मदेवजी ने अपनी द्रव्यसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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