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________________ सांख्य कारिका में कहा है कि धर्म से ऊर्ध्व एते ये तु समुलसन्ति गमन होता है अर्थात् स्वर्ग की प्राप्ति होती है, अधर्म विविधा भावाः प्रथग्लक्षणासे नीचे गमन होता है अर्थात् नरक की प्राप्ति होती है, स्तेहं नास्मि यतोऽत्रते मम ज्ञान से अपवर्ग – मोक्ष प्राप्त होता है और अज्ञान से परद्रव्यं समग्रा अपि। बंध होता है। मोक्षाभिलाषियों जीवों को अपने चित्त की प्रवृत्ति यदि कर्म बंध से बचना है तो अज्ञान से बचो। को उदात्त बनाकर निरंतर इस सिद्धांत की उपासना यहाँ अज्ञान का अर्थ मोहोदय से दूषित मिथ्याज्ञान है। करना चाहिए कि मैं तो एक शुद्ध चैतन्य ज्योतिःस्वरूप मोक्षाभिलाषी जीव को उससे दूर रहना चाहिए। यह ही हूँ। ये जो नाना प्रकार के विकारी भाव समुल्लसित हो रहे हैं वे सबके सब परद्रव्य हैं, मेरे नहीं हैं। जीव मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्न तो करता है, परन्तु स्वरूप की ओर लक्ष्य न होने से उसका वह प्रयत्न सफल नहीं ___ इतना पुरुषार्थ तो प्रत्येक जीव को करना चाहिए कि वह स्वभाव-विभाव को समझ सके। गोताखोर हो पाता । एक ओर पत्थरों के ढेर में 'पारसमणि' है यह मनुष्य अपने मुँह में तेल भर कर गोता लगाता है। सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए कोई तैयार हुआ। तलहटी में पहुंचने पर वह तेल को मुँह से निकाल देता 'पारसमणि' के घिसने से लोहा स्वर्णमय हो जाता है, __ है जिससे वहाँ की सब वस्तुयें उस को स्पष्ट दिखाई देने यह सुनकर पत्थरों के ढेर से एक पत्थर उठाता और लोहे लगती हैं - यह मगर है. यह मच्छ है. यह प्रवाल है. पर घिस कर झट से जलाशय में फैंक देता। यह करते- यह मोती है। इसी प्रकार मोक्षार्थी पुरुष भेदविज्ञान के करते एक बार पारसमणि उसके हाथ में आया, संस्कार प्रकाश में स्व और पर को अच्छी तरह समझने लगता वश उसने उसे लोहे पर घिसा और पानी में फेंक दिया। है। पर को समझकर जो उसका परित्याग करता है और पानी में फैंक देने के बाद जब लोहा देखता है तो वह अपने स्वरूप में संवृत रहता है वही बंध से बचता है। सुवर्णमय दिखता है। परन्तु पारसमणि को तो वह संस्कार कहा है - वश पानी में फैंक चुका था। अब उसकी पुन: प्राप्ति दूभर परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतापराधवान्। हो गई। इसी प्रकार संस्कार वश यह जीव शरीराश्रित वध्येतानपराधो ना स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः। क्रियाएँ तो बहुत करता है, परन्तु स्वभाव की ओर लक्ष्य परद्रव्य को ग्रहण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं देता। क्रियाओं के करने का निषेध नहीं है अपने पद कहलाता है और अपराधी होने से बंध को प्राप्त होता के अनुरूप क्रियाओं को करना आवश्यक है। परन्तु उन है, परन्तु जो मुनि स्वकीय द्रव्य में - अपने ज्ञाता-दृष्टा क्रियाओं को करते हुए अपने वीतराग स्वभाव की ओर स्वरूप में संवृत रहता है वह अपराधी नहीं कहलाता लक्ष्य भी तो रक्खो। उसके बिना केवल क्रियाओं से क्या और इसलिए बंध को प्राप्त नहीं होता। होने जाने वाला है ? यह जीव शेखचिल्ली के समान अपने आप संकल्पों को उत्पन्न करता है और उनमें निमग्न हो दुःख अमृतचंद्रसूरि ने कहा है - उठाता है। एक गाँव में शेखचिल्ली ! नाम का एक सिद्धान्तोऽयमुदात्ता चित्त आदमी रहता था, गरीब होने से मजदूरी करता था। चरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यता, एक बार एक तेलिन ने उससे कहा- भैया शेखचिल्ली शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं हमारी यह तेल की मटकी (घड़ा) हमारे घर पहुँचा दो, ___ज्योतिः सदैवास्म्यहं। दो पैसे तुम्हें दूंगी। दो पैसे मिलने की आशा से महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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