SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एवं फलाकांक्षा (निदान अर्थात् उनके प्रति कल के शुभ दोनों प्रकार के कर्मफलों से मुक्त होना । रूप में किसी निश्चित फल की कामना करना) से आवश्यक है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं 'हे अर्जुन, तू युक्त होते हैं तो वे कर्मक्षय अथवा निर्वाण का जो भी कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं, कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है अथवा चाहे उनका फल सूख के रूप में क्यों नहीं हो। तप करता है वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित जैनाचार दर्शन में अनासक्त भाव या राग द्वष से कर दे अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या या कर्तृत्व भाव मत रख । इस प्रकार सन्यास-योग निर्वाण का कारण माना गया है और प्रासक्ति से से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देने वाले कर्म किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का ही कारण बन्धन से छूट जावेगा और मुझे प्राप्त होवेगा । समझा गया है । यहां पर गीता की अनासक्त गीताकार स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि कर्म योग की विचारणा जैन दर्शन के अत्यन्त शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों ही बन्धन हैं और समीप आ जाती है । जब दर्शन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। प्रात्मा को अशुभ कर्म से शुभ कर्म की अोर और बुद्धिमान व्यक्ति शुभ और अशुभ या पुण्य और शुभ से शुद्ध कर्म (वीतरागदशा) की प्राप्ति है। पाप दोनों को ही त्याग देता है ।43 सच्चे भक्त का आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन नैतिकता का अन्तिम लक्षण बताते हुए पुनः कहा गया है कि जो शुभ साध्य है। और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है अर्थात् बौद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध दर्शन भी जैन दर्शन जो दोनों से ऊपर उठ चुका है वह भक्तियुक्त पुरुष के समान ही नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था मुझे प्रिय है । डा० राधाकृष्णन ने गीता के में पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठने की बात परिचयात्मक निबन्ध में भी इसी धारणा को कहता है। भगवान बुद्ध सुत्तनिपात में कहते हैं-जो प्रस्तुत किया है। वे प्राचार्य कुन्दकुन्द के साथ पुण्य और पाप को दूर कर शांत (सम) हो गया है सम स्वर हो कर कहते हैं 'चाहे हम अच्छी इस लोक और परलोक (के यथार्थ स्वरूप) को इच्छात्रों के वन्धन में बन्धे हो या बुरी इच्छाओं जान कर (कर्म) रज रहित हो गया है जो अन्य के, बन्धन तो दोनों ही हैं। इससे क्या अन्तर पड़ता मरण से परे हो गया है वह श्रमण स्थिर, स्थितात्मा है कि जिन जंजीरों में हम बन्धे हैं वे सोने की हैं या लोहे की 145 जैन दर्शन के समान गीता भी (तथता.) कहलाता है40 । समिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध वंदना में पुन: इसी बात को दोहराया गया हमें यही बताती है कि प्रथमतः जब पुण्य कर्मों के है । वह शुद्ध के प्रति कहता है जिस प्रकार सुन्दर सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाता पुण्डरीक कमल पानी में लिप्त नहीं होता. उसी है तदनन्तर वह पुरुष रागद्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर प्रकार पाप पुण्य और पाप दोनों में लिप्त नहीं दृढ़ निश्चयपूर्वक मेरी भक्ति करता है 146 इस होते1 । इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध विचा- प्रकार गीता भी नैतिक जीवन के लिए अशुभ कर्म रणा का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशभ से से शुभ कर्म की अोर और शुभ कर्म से शुद्ध या निष्काम कर्म की अोर वढ़ने का संकेत देती है । ऊपर उठना है। गीता का अन्तिम लक्ष्य भी शुभाशुभ से ऊपर गीता का दृष्टिकोण----स्वयं गीताकार ने भी निष्काम जीवन दृष्टि का निर्माण है। यह संकेत किया है कि मुक्ति के लिए शुभा. पाश्चात्य दृष्टिकोण--पाश्चात्य प्राचार दर्शन 1-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy