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________________ 18. मिथ्यादर्शनणल्य-अयथार्थ धद्धा या जीवन निम्न दस प्रकार के पापाचरण का वर्णन किया दष्टि । बौद्ध दृष्टिकोरण : बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर निम्न 10 प्रकार के पापों या प्रकुशल कर्मों का बर्णन मिलता (अ) कायिक : 1. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्य भिचार (ब) वाचिक : 4. मिथ्या (ग्रसत्य), 5. ताना मारना, 6. कटुवचन, 7. असंगत बोलना (अ) कायिक पाप : 1. प्राणातिपात-हिंसा, 2. अदत्तादान-चोरी या स्तेय, 3. कामेमु-मिच्छाचार-कामभोग सम्बन्धी दुराचार । (म) मानसिक : 8. परद्रव्य अभिलाषा, 9. अहित चिन्तन, 10. व्यर्थ आग्रह (ब) कायिक पाप : 4. मृपावाद-असत्य भाषरण, 5. पिसुनावाचा-पिशुन वचन, 6. परूसावाचा-बठोर वचन, 7. सम्फलाप-व्यर्थ पालाप । (स) मानसिक पाप : 8. अमिज्जा-लोभ, 9 व्यापाद-मानसिक हिंसा या अहित चिंतन, 10. मिच्छादिट्ठी-मिथ्या दृष्टिकोण । अभिधम्म संगहे" में निम्न 14 अकशल चैतसिक बताए गए हैं : पाप के कारण : जैन विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं--1. राग या स्वार्थ, 2. द्वेष या घृणा और 3. मोह या अज्ञान। प्राणी राग, द्वेष और मोह से ही पाप कर्म करता है । बुद्ध के अनुसार भी पाप कर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं-1. लोभ (राग), 2. द्वेष और 3. मोह । गीता के अनुसार काम (राग) और क्रोध ही पाप के कारण हैं । 1. मोह-चित्त का अन्धापन, मूढ़ता, 2. अहिरिक पुण्य (कुशल कर्म) : पुण्य वह है जिसके निर्लज्जता, 3 अनौतपयं-अभीरुतापाप कर्म में भय न कारण सामाजिक एव ___ कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की मानना, 4. उद्धच्च-उद्धतपन, चञ्चलता, 5. लोभो- स्थापना होती है । मन, शरीर और बाह्य परिवेश तृपणा, 6. दिट्ठि-मिथ्या दृष्टि 7. मानो-अहंकार, के मध्य सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। 8. दोसो-ष, 9. इम्सा-ईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्वार्थ सूत्रकार को न सह सकना) 10. मच्छरिय-मात्सर्य (अपनी कहते हैं-शुभाश्रव पुण्य है। लेकिन पुण्य मात्र सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्च- प्राश्रव नहीं है, वरन् वह बन्ध और विपाक भी है कौकृत्य (कृत-प्रकृत के बारे में पश्चाताप), 12. दूसरे वह मात्र बन्धन या हेय ही नहीं है वरन् थीनं, 13. मिद्ध', 14. विचिकिच्छा-विचिकित्सा उपादेय भी है। अतः अनेक प्राचार्यों ने उसकी (संशयालुपन)। व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। प्राचार्य हेमचन्द्र पुण्य अशुभ कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों गीता का दृष्टिकोण : गीता भी जैन और बौद्ध का उदय है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दर्शन में स्वीकृत इन पापाचरणों या विकर्मों का दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और उल्लेख आसुरी सम्पदा के रूप में किया गया है। शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त गीता रहस्य में तिलक ने मनु स्मृति के आधार पर अवस्था का द्योतक है । पुण्य के निर्वाण की उपमहावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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