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________________ व्यक्ति की वृत्ति * प्रो० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम० ए० (स्वर्णपदक प्राप्त), रिसर्चस्कालर हिन्दी-विभाग-श्री वाष्र्णेय महाविद्यालय अलीगढ़ । छठी शती की बात है । एक व्यक्ति धनोपार्जन हेतु दूसरे प्रान्तर गया । दीर्घकाल तक वह घर नहीं लौटा । पत्रों की शृखला बंध गयी । व्यक्ति उनकी उपेक्षा करता गया। छः मास के उपरान्त उसका लौटना हुमा । मार्ग में विश्राम हेतु एक धर्मशाला में उसने टिकने का निश्चय किया। रात्रि का दीपक जला । यात्रा की थकान मिटाने के लिए व्यक्ति शैय्या पर लेट गया । वह शैय्या पर लेट कर सुख का आनन्द ले ही रहा था कि समीर अवस्थित कमरे से करुण ऋदन सुनाई पड़ा। इधर निशा यौवन को प्राप्त हो रही थी उधर क्रन्दन प्रारोहण को अग्रसर था । व्यक्ति के सुखानन्द में व्यवधान प्रा पड़ा । उसके वस्तुस्थिति को जानने के लिए परिचारक को भेजा। परिचारक ने स्थिति का उद्घाटन किया-'बाब जी! निकट के कमरे में एक लड़का ठहरा हुमा है । उसके उदरशूल हो रहा है । इसलिए वह चिल्ला रहा है।' व्यक्ति ने मौन तोड़ा-अबे ! जा, उसे समझा, वह रोये नहीं । मुझे नींद नहीं आ रही । कह दे।' परिचारक कह पाया पर रोना रुका नहीं अपितु स्वर ने तीव्रता और पकड़ ली। व्यक्ति फुफकार उठा । उसने परिचारक को आदेश दिया- 'उसे धर्मशाला से निकाल दो।' अरण्य न्याय कब नहीं चलता ? परिचारक गए और लड़के तथा उसके सेवक के बिस्तर बाहर फेंक दिए। रात ढल रही थी । घर के भीतर भी लोग ठिठुर रहे थे । व्यक्ति प्राराम से सो गया । वह प्रातःकाल उठा। _ 'ये कहने से नहीं मानते, कुछ प्रा बीतती है तब मानते हैं'–कहते कहते व्यक्ति ने सुख की सांस ली। उसका अभिमान सीमा का अतिक्रमण कर गया । वह बोला-'पहले शान्त रहता तो क्यों जाना पड़ता ?' परिचारक बोला-'बाबूजी ! शान्त तो वह मर कर ही हुआ है ।' क्या, मर गया ? जी, मर गया ! कौन था वह ? आप ही जानें ! व्यक्ति उठकर बाहर आया। गांव और पिता नाम को जानकर व्यक्ति के प्राण भीतर के भीतर और बाहर के बाहर रह गए । अब वह अपने पुत्र के लिए प्रांसू ही बहा सकता था। ___सामाजिक जीवन में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति के कारण मनुष्य कितना क्रूर हो जाता है। निस्संदेह सच्चा और अच्छा जीवन 'जीरो और जीने दो' में व्यज्जित है। पीलीकोठी, आगरारोड़, अलीगढ । 1-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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