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________________ गया है 111 सृष्टि की उत्पत्ति 'परमाणुवाद स्वरूप में अवस्थान को ही परम लक्ष्य, योग यां सिद्धांत' के आधार पर मानी गयी है। दो परमा- कैवल्य माना है । णुत्रों के योग से व्यणुक, तीन व्यणुकों के योग से त्यणुक, चार त्या कों से चतुरणुक और चतुर- जैन दर्शन भी पुरुष विशेषः ईश्वरः में विश्वास णुकों के योग से अन्य स्थूल पदार्थों की सृष्टि मानी नहीं करता । प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने गयी है । 2 जीवात्मा को अगु, चेतन, विभु तथा की शक्ति का उद्घोष करता है । द्रव्य की दृष्टि से नित्य आदि कहा गया है ।13 इस प्रकार वैशेषिक आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। दर्शन में परमाणु को मूल तत्व मानने के कारण दोनों का अन्तर अवस्थागत अर्थात् पर्यायगत है। ईश्वर या परमात्म शक्ति को स्वीकार नहीं किया जीवात्मा शरीर एवं कर्मों की उपाधि से युक्त हो गया। कर 'संसारी' हो जाता है । 'मुक्त' जीव त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन 'परमात्मा' है। 'जिस प्रकार न्याय में सूत्रकाल में ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीण यह प्रात्मा राग द्वेष द्वारा कर्मों का उपार्जन करती प्रायः था । भाष्यकारों ने ही ईश्वर वाद की स्था है और समय पर उन कर्मों का विपाक फल भोगती पना पर विशेष बल दिया । आत्मा को ही दो है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर भागों में विभाजित कर दिया गया-जीवात्मा एवं सिद्ध लोक में सिद्ध पद को प्राप्त करती है।15 परमात्मा । 'ज्ञानाधिकरणमात्मा । स द्विविधः जीवात्मा 'प्रात्मा देव देवालय में नहीं है, पाषाण की परमात्मा चेति । तत्र श्वरः सर्वज्ञः परमात्मा एक प्रतिमा में भी नहीं है, लेप तथा मूर्ति में भी नहीं एव सुख दु.खादि रहितः जीवात्मा प्रति शरीरं है। वह देव अक्षय अविनाशी है, कर्म फल से भिन्नो विभुनित्यश्च ।।' रहित है, ज्ञान से पूर्ण है, समभाव में स्थित है।'16 इस दृष्टि से प्रात्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चल कर परमात्मा का भव्य प्रासाद 'जैसा कर्मरहित, केवलज्ञानादि से युक्त प्रकट निर्मित किया गया। कार्य समयसार सिद्ध परमात्मा परम प्राराध्य देव प्रात्मा को ही ब्रह्म रूप में स्वीकार करने की मुक्ति में रहता है वैसा ही सब लक्षणों से युक्त विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में भी थी। शक्ति रूप कारण परमात्मा इस देह में रहता है." 'प्रज्ञाने ब्रह्म', 'अहं ब्रह्मास्मि', 'तत्वमसि', 'प्रय- तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर 117 मात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण हैं। 'हे पुरुष ! तू अपने आप का निग्रह कर, स्वयं ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है । यही लक्षण आत्मा । के निग्रह से ही तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जायेगा।'18 का है । 'मैं ब्रह्म हूं', 'तू ब्रह्म ही है', 'मेरी प्रात्मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्यों में मात्मा एवं ब्रह्म .. _ 'हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं। मत कर । जो अजर अमर परम ब्रह्म है उसे ही पतंजलि ने ईश्वर पर बल न देते हुए मात्म अपना मान 119 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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