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________________ चरमावस्था पाती है जिसे निर्विकल्प समाधि मकान में, पत्नी में, बेटे आदि में फैली रहती है। कहते हैं, यहां योगों की प्रवृति एकदम बन्द हो जितनी अधिक प्रासक्ति, चेतना का बाहरी फैलाव जाती है और फिर कार्मारण-शरीर संरचना में उतना ही अधिक होता जाता है। यहां प्रतिक्रमण नवीन कारण तरंगों का आना तो समाप्त हो से तात्पर्य है --सारी चेतना को समेट लेना अपने ही जाता है, वरन् इसका संगठन भी बिखरने भीतर । 'सामायिक' में प्रवेश से पूर्व हमारी चेतना लगता है, यही निर्जरा है। और सम्पूर्ण-कर्मों की अपने 'स्व' में आ जाये तभी सामायिक की सीढ़ी निर्जीणावस्था ही मोक्ष है। मोक्ष कोई स्थान चढ़ी जा सकती है । 'स्व' में केन्द्रित होना ही विशेष नहीं है । यह स्थिति विशेष है, जहां आत्मा प्रतिक्रमण है। वह चेतना के फैलाव को स्वयं से वे सूक्ष्म कामरिण और तेजस शरीर भी समाप्त के केन्द्र पर सघनीभूत कर लेना है। जिससे हो जाते हैं । इन्हीं सूक्ष्म शरीर को पिघलने में इसका उपयोग प्रात्म-स्थिति वा आत्म-दर्शन के लगा हा श्रम तपश्चर्या है और पिघलने की जो लिये किया जा सके । इसी हेतु श्रावक के लिये प्रक्रिया है, ध्यान है। प्रतिक्रमण करने का विधान है जो ध्यान में जाने का पूर्व चरण है। महावीर एक बड़ी खोज विज्ञान सीधे नियम पर निर्धारित है और वह भगवान महावीर-महाव्रती कहलाते हैं। कार्य कारण, सिद्धात पर खड़ा है। धर्म भी महाव्रत क्या है ? मूर्छा के टूटते ही जो उपलब्ध विज्ञान है । धर्म है, चेतना विज्ञान । बाहर जो है, होता है, वह महाव्रत है । अभ्यास कर साधी गई उसकी खोज विज्ञान है, भीतर जो है. उसकी वस्तु या व्रत से हम अपनी मर्छा नहीं तोड़ सकते। खोज धर्म है । अतः धर्म भी कार्य कारण सिद्धांत क्योंकि प्रयास से साधे हुये व्रत में भी एक संघर्ष पर खड़ा है। विज्ञान कहता है कि भगवान से है, मन के खिलाफ चलने की एक व्यवस्था है । हमें लेना-देना नहीं। हम तो प्रकृति का नियम जब वस्तुप्रों से हमाग लगाव ही छूट जाये तब खोजते हैं। ठीक यही बात भगवान महावीर ने वह स्थिति ही अमूर्छा की स्थिति है और ऐसी चेतना से कही है कि हम नियन्ता को विदा करते स्थिति में विस्फोट की भांति महावत उपलब्ध हैं। उन्होंने आत्म पुरुषार्थ को महत्ता दी और होता है। कहा कि हम जो कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं, ऊपर भगवान महावीर की साधना के सन्दर्भ अच्छा या बुरा भोगना कोई भाग्य का लिखा या में कुछ बातें कहीं हैं । जैसे विज्ञान जीवन से किसी नियन्ता का दिया नहीं बल्कि हमारे कार्य अलग नहीं है उसी प्रकार साधना भी जीवन से का फल है। कार्य और उसके फल में सीधा अलग कोई वस्तु नहीं। साधना तो जीवन में धर्म सम्बन्ध है जो उसी क्षण से मिलना प्रारम्भ हो के फूल हैं जो स्वयं को सुवासित तो कर ही देते जाता है। हैं वातावरण को भी सुगन्धमय बना देते हैं । कुछ पारिभाषिक शब्द-नये सन्दर्भ में - ऐसे कुछ साधना के तथ्यों को वैज्ञानिक परिभाषा ... भगवान महावीर स्वामी ने श्रावक के लिये में बांधकर उन्हें आज के नये सन्दर्भो में देखा है प्रतिक्रमण' बताया है। प्रतिक्रमण का साधारण ताकि धर्म से उपेक्षित युवा पीढ़ी इन सिद्धान्तों अर्थ है आक्रमण को वापिस कर देना । सामान्य और विश्वासों के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि उत्पन्न कर रूप से हमारी चेतना, मित्र में, शत्रु में, धन में, सके । 1-8 महावीर जयन्ती स्मारिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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