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________________ OKOKOOK प्रथमानुयोग के ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य कथा व्याज से जनसाधारण में उनके पढ़ने की रुचि जागृत करना, उन्हें धर्म तत्व का बोध कराना और इतरधर्मों से जैन धर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित करना रहा है । अपने इस उद्देश्य में वे कहाँ तक सफल हुए हैं इसकी समीक्षा विद्वान् लेखक ने कई ग्रन्थकारों के उदाहरणों द्वारा इन पंक्तियों में प्रस्तुत की है । जैन साहित्य में प्रयुक्त धर्म परीक्षा अभिप्राय पाठवीं शताब्दी के प्राकृत के सशक्त कराकार उद्योतनसूरी ने कुवलयमालाकहा में काव्य और दर्शन का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है । धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने नेक दृष्टान्तों, कथानों, प्रतीकों और अभिप्रायों का प्रयोग किया है । समुद्र में नौका का भग्न होना, धार्मिक आचार्य द्वारा पूर्व जन्मों का बृतान्त सुनाना, संसार की प्रसारता देखकर वैराग्य प्राप्त करना, धार्मिक पटचित्र का प्रदर्शन, अन्य धार्मिक बिचार - धारात्रों में जैनधर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करना श्रादि कुवलयमाला के धार्मिक अभिप्राय हैं । यद्यपि ये अभिप्राय प्रारम्भ से ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त होते रहे हैं, किन्तु उद्योतनसूरि ने उन्हें नये रूपों में प्रस्तुत किया है। अन्य धार्मिक मान्यताओं की तुलना में जैनधर्म ष्ठता प्रतिपादित करना, धर्मपरीक्षा के नाम महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International - पोल्याका डा० प्रेम सुमन जैन, एम. ए. पी-एच० डी० एसोसिएट प्रोफेसर एव अध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर से जाना गया है । इसके मूल में दूसरे के दोषों को दिखाते हुए अपने गुणों को प्रकट करना रहा है । अन्य धार्मिक मतों में जो अन्ध-विश्वास, पाखण्ड तथा प्रतिशयोक्तिपूर्ण बातों का समावेश हो गया है। उनका खण्डन करते हुए अपने धर्म की सार्वभौमि कता तथा प्रामाणिकता का प्रतिपादन ही धर्म-परीक्षा है । इस मूल भावना को लेकर प्राचीन भारतीय साहित्य में कई रचनाएं विभिन्न भाषाओं में लिखी गयीं है। प्रो वेलेणकर एवं डा. ए. एन. उपाध्ये ने धर्मपरीक्षा सम्बन्धी साहित्य का परिचय दिया है । लोक साहित्य में भी इसके अनेक उदाहरण प्राप्त हैं । 'डिक्शनरी ग्राफ फोकलोर' में परीक्षा सम्दन्धी अनेक मोटिफ वर्णित हैं, जिसका सम्बन्ध धर्म-परीक्षा से भी है । उद्योतनसूरि ने राजा दृढ़वर्मन की दीक्षा पूर्व धर्मपरीक्षा के अभिप्राय का प्रयोग किया है । For Private & Personal Use Only 2-145 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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